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स्वामीजी

हीन होकर गङ्गा के प्रवाहाभिमुख बहने लगे। ठीक इसी समय नवीन उनकी सहायता के लिए उनके पास पहुँच गया। उसने बड़ी वीरता से दोनों को सँभाला। शारदा को छोड़कर स्वामीजी फिर स्वस्थ हो गये। बड़ी मुश्किल से नवीन और स्वामीजी ने, अपनी जान पर खेलकर, शारदा को बाहर निकाला। वृद्ध और उसकी स्त्री स्वामीजी के चरण छूने के लिए दौड़े। पर उन्होंने उनको ऐसा करने से निषेध कर दिया। वे रो-रोकर स्वामीजी का गुण-गान करने लगे। स्वामीजी ने कहा—

"हमने कोई प्रशंसा-योग्य काम नहीं किया—किया है अपने कर्तव्य का पालन। नवीन-बाबू ने ज़रूर अपनी श्रेष्ठ-बुद्धि का परिचय दिया है। साधु का जीवन दूसरों के लिए ही है और फिर तुम तो ..."

कहकर स्वामीजी रुक गये। स्वामीजी की बात सुनकर हमारे हृदय की तन्त्री में त्याग का राग बजने लगा। स्वामीजी की निष्कपट और सरल मूर्ति में हमने सचमुच उस समय मूर्तिमान् त्याग के दर्शन किये।

वृद्ध ने स्वस्थ होकर नवीनचन्द्र की जाति-गोत्र के विषय में प्रश्न करने शुरू किये। उसी समय स्वामीजी ने सरलता की हँसी हँसते हुए कहा—

"बाबू कृष्णदास, विवाह का दूसरा नाम पाणि-ग्रहण है। नवीन-बाबू ने शारदा का पाणि-ग्रहण करके निश्चय ही तुमको कृतार्थ किया है। जिस समय थककर हम डूबने लगे थे, उस