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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/५१

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संन्यासी


सारे गाँव के लोग इकट्ठे हो जाते और उसकी प्रशंसा के पुल बाँध देते। उसके स्वर में जादू था। वह कुछ दिन के लिए भी बाहर चला जाता, तो गाँव में उदासी छा जाती। पर उसके घर के लोग उसके गुणों को नहीं जानते थे। पालू मन-ही-मन इस पर बहुत कूढ़ता था। तीसरे पहर घर जाता, तो माँ ठण्डी रोटियाँ सामने रख देती। रोटियाँ ठण्डी होती थीं; परन्तु गालियों की भाजी गर्म होती थी। उस पर भावजें मीठे तानों से कड़वी मिचें छिड़क देती थीं। पालू उन मिर्ची से कभी-कभी बिलबिला उठता था; परन्तु लोगों की सहानुभूति मिश्री की डली का काम दे जाती थी।

वे तीन भाई थे-सुचालू, बालू और पालू। सुचालू गवर्नमेंट- स्कूल गुजरात में व्यायाम का मास्टर था, इसलिए लोग उसे सुचालामल के नाम से पुकारते थे। बालू दूकान करता था; उसे बालकराम कहते थे। परन्तु पालू की रुचि सर्वथा खेल-कूद ही में थी। पिता समझाता, माँ उपदेश करती, भाई निष्ठुर दृष्टि से देखते। मगर पालू सुना-अनसुना कर देता और अपने रंग में मस्त रहता।

इसी प्रकार पालू की आयु के तैंतीस वर्ष बीत गये; परन्तु कोई लड़की देने को तैयार न हुआ। माँ दुखी होती थी, मगर पालू हँसकर टाल देता और कहता-"मैं ब्याह करके क्या करूँगा? मुझे इस बन्धन से दूर ही रहने दो।" परन्तु विधाता के लेख को कौन मिटा सकता है पाँच मील की दूरी पर टाँडा-