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संन्यासी

उठते, मानो किसी ने काँटा चुभो दिया हो। बार-बार सोचते; परन्तु कारण समझ में न आता। तब वे घबराकर रोने लग जाते। इससे मन तो हल्का हो जाता था; परन्तु चित्त को शान्ति फिर भी न होती। उस समय सोचते—संसार मुझे धर्मावतार समझ रहा है; पर कौन जानता है कि यहाँ आठों पहर आग सुलग रही है। पता नहीं, पिछले जन्म में कौन पाप किये थे, जिससे अब तक आत्मा को शान्ति नहीं मिलती।

अन्त में उन्होंने एक दिन दण्ड हाथ में लिया और अपने गुरु स्वामी प्रकाशानन्द के पास जा पहुँचे। उस समय वे रामायण की कथा से निवृत्त हुए थे। उन्होंने ज्योंही स्वामी विद्यानन्द को देखा, फूल की तरह खिल गये। उनको विद्यानन्द पर गर्व था। हँसकर बोले—

"कहिए क्या हाल है, शरीर तो अच्छा है?"

परन्तु स्वामी विद्यानन्द ने कोई उत्तर न दिया, और रोते हुए उनके चरणों से लिपट गये।

स्वामी प्रकाशानन्द को बड़ा आश्चर्य हुआ। अपने सबसे अधिक माननीय शिष्य को रोते देखकर उनके आत्मा पर आघात-सा लगा। उन्हें प्यार से उठाकर बोले—"क्यों कुशल तो है?"

स्वामी विद्यानन्द ने बालकों की तरह फूट-फूटकर रोते हुए कहा—"महाराज, मैं पाखण्डी हूँ। संसार मुझे धर्मावतार कह रहा है; परन्तु मेरे मन में अभी तक अशान्ति भरी हुई है। मेरा चित्त आठों पहर अशान्त रहता है।"