पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/६०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
४८
गल्प-समुच्चय


जिस प्रकार भले-चंगे मनुष्य को देखने के कुछ क्षण पश्चात्‌ उसकी मृत्यु का समाचार सुनकर विश्वास नहीं होता, उसी प्रकार स्वामी प्रकाशानन्द को अपने सदाचारी शिष्य की बात पर विश्वास न हुआ, और उन्होंने इस व्यंग्य से, मानो उनके कानों ने धोखा खाया हो, पूछा—"क्या कहा?"

स्वामी विद्यानन्द ने सिर झुकाकर उत्तर दिया, "महाराज, मेरा शरीर दग्ध हो गया है; परन्तु आत्मा अभी तक निर्मल नहीं हुआ।"

"इससे तुम्हारा अभिप्राय क्या है?"

"मैं प्रतिक्षण अशान्त रहता हूँ, मानो कोई कर्त्तव्य है, जिसे मैं पूरा नहीं कर रहा हूँ।"

"इसका कारण क्या हो सकता है, जानते हो?"

"जानता, तो आपकी सेवा में क्यों आता?"

एकाएक स्वामी प्रकाशानन्द को कोई बात याद आ गई। वे हँसकर बोले—"तुम्हारी स्त्री है?"

"उसकी मृत्यु ही तो संन्यास का कारण हुई थी।"

"माता?"

"वह भी नहीं।"

"पिता!"

"वह भी मर चुके हैं।"

"कोई बाल-बच्चा?"

"हाँ एक बालक है, वह चार वर्ष का होगा।"