लोहड़ी का दिन था, साँझ का समय। बालकराम के द्वार पर पुरुषों की भीड़ थी, आँगन में स्त्रियों का जमघटा। कोई गाती थीं, कोई हँसती थीं, कोई अग्नि में चावल फेंकती थीं, कोई चिड़वे खाती थीं। तीन कन्याओं के पश्चात् परमात्मा ने पुत्र दिया था। यह उसकी पहली लोहड़ी थी। बालकराम और उसकी स्त्री दोनों आनन्द से प्रफुल्लित थे। बड़े समारोह से त्यौहार मनाया जा रहा था। दस रुपये की मक्की उड़ गई, चिड़वे और रेवड़ी इसके अतिरिक्त; परन्तु सुखदयाल की ओर किसी का भी ध्यान न था। वह घर से बाहर दीवार के साथ खड़ा लोगों की ओर लुब्ध-दृष्टि से देख रहा था कि एकाएक भोलानाथ ने उसके कन्धों पर हाथ रखकर कहा—"सुक्खू!"
सूखे धानों में पानी पड़ गया। सुखदयाल ने पुलकित होकर उत्तर दिया—"चाचा!"
"आज लोहड़ी है, तुम्हारी ताई ने तुम्हें क्या दिया?"
"मक्की"
"और क्या दिया?"
"और कुछ नहीं।"
"और तुम्हारी बहनों को?"
"मिठाई भी दी, संगतरे भी दिये, पैसे भी दिये।"
भोलानाथ के नेत्रों में जल भर आया। भर्राये हुए स्वर से बोले—"हमारे घर चलोगे?"
"चलूँगा"