अन्धकारमय वायुमण्डल के भिन्न-भिन्न भागों के नाम हैं। इसके सिवा मैं और कुछ न समझ सकती हूँ, न समझती हूँ। मैं अन्धी हूँ, मेरा संसार एक अँधेरी लम्बी यात्रा है और शब्द उसके पड़ाव हैं। जिस प्रकार कहते हैं, समुद्र की तरंगें उठती हैं और बैठ जाती हैं, उसी प्रकार मेरी इस अँधेरी दुनियाँ में अनेक शब्द उठते हैं और मर जाते हैं। मैं शब्द को जानती हूँ, शब्द को पहचानती हूँ, और उन्हीं की सहायता से सौन्दर्य, जीवन और आयु का अनुमान लगाती हूँ। जब मैं किसी बालक की तोतली बातें सुनती हूँ और जब मेरा हृदय उन्हें पसन्द करता है, तब मैं समझ लेती हूँ कि सुन्दरता इसी मीठी वाणी का नाम है । जब मैं किसी पुरुष को बातें करते पाती हूँ और उसकी बातों में मुझे वह वस्तु प्रतीत होती है, जो कभी चन्द्रमा की चाँदनी में और कभी शीतकाल की धूप में प्रतीत होती है, तब मैं तुरन्त जान लेती हूँ कि जवानी इसी को कहते हैं। और जब मैं किसी काँपती हुई आवाज़ को और उसके अन्दर मर-मर जाते हुए शब्दों को सुनाती हूँ, तब मुझे विश्वास हो जाता है कि यह मनुष्य बूढ़ा है और शनै: शनैः अपने शब्दों की तरह काँप-काँपकर खुद भी मर रहा है। थोड़े ही दिनों में अपने स्वर के समान स्वयं भी मर जायगा और संसार के लोग जिस प्रकार उसके जीवनकाल में उसकी आवाज़ की परवा नहीं करते थे, ठीक उसी प्रकार मरने के पश्चात् उसकी मृत्यु की परवा नहीं करेंगे। इतना ही नहीं, मैं क्रोध और दुःख,भय और आनन्द, प्रेम और दया, आश्चर्य और विस्मय, सब
पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/७२
Jump to navigation
Jump to search
यह पृष्ठ प्रमाणित हो गया।
६०
गल्प समुच्चय
