"तुम्हारा ब्याह होगा।"
मेरा मुँह लाल हो गया, जैसे किसी ने तमाचा मार दिया हो। फिर भी साहस से बोली—"मैं अन्धी हूँ।"
"फिर?"
"मेरे साथ कौन ब्याह करेगा?"
अब सोचती हूँ कि उस समय ये शब्द कैसे कह दिये थे। परन्तु अन्धी के लिए साहस कोई बड़ी बात नहीं। लज्जा आँखों में होती है। और वह न दूसरे को देख सकती है, न यह जान सकती है कि कोई दूसरा उसे देख रहा है। सीताराम कुछ देर चुप रहे। उनकी यह चुप्पी मेरे लिए संसार का सबसे बड़ा दण्ड था। ऐसा जान पड़ता था कि मेरे भाग्य की परीक्षा हो चुकी है और अब परिणाम निकलने को है। मेरे प्राण होठों तक आ गये। एकाएक वे आगे बढ़े और मेरे मस्तक पर धीरे से अपना हाथ रखकर बोले—"रजनी! तुम्हारे साथ मैं ब्याह करूँगा।"
मेरे सिर से बोझ उतर गया। मालूम होता है, हृदय के भाव मुख पर पढ़े जा सकते हैं; क्योंकि सीताराम ने दूसरे क्षण में मुझे अपने बाहु-पाश में ले लिया और मेरा मुँह प्रेम से बार-बार चूमने लगे।
उस रात मुझे नींद न आई। उसका स्थान आनन्द ने ले लिया था। ऐसे प्रतीत होता था, मानो मैं अपनी अँधेरी दुनिया पर शासन कर रही हूँ, और संसार मेरे प्रेम के अमर संगीत से भरपूर हो चुका है।
एक मास भी न बीतने पाया कि हमारा ब्याह हो गया।