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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/८३

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अँधेरी दुनिया

आँसुओं की बूंदों के सिवा और कुछ न देखती। एक दिन बाहर से आये तो घबराये हुए थे। आते ही बोले,––"रजनी।"

मैंने धीरे से उत्तर दिया––"जी।"

"तुम कब अन्धी हुई थीं? मेरा विचार है, तुम जन्म से अन्धी नहीं हो।"

"नहीं।"

"तो तुम्हारी आँखें ख़राब हुए कितना समय हुआ?"

"मैं उस समय तीन वर्ष की थी।"

"तुम्हें अच्छी तरह याद है। तुम्हें विश्वास है?"

"हाँ, इसमें ज़रा भी सन्देह नहीं।"

उन्होंने मुझे खींचकर गले से लगा लिया और बोले––"परमात्मा को धन्यवाद है! एक बार अन्तिम प्रयत्न करूँगा।"

आवाज़ से मालूम होता था, जैसे उनके सिर से कोई बोझ उतर गया है। मैंने उनके मुख पर हाथ फेरते हुए पूछा––"बात क्या है?"

"मैं चाहता हूँ, तुम्हारी आँखें खुल जायँ, तुम भी संसार के अन्य जीवों के समान देखने लगो। मेरे उस समय के आनन्द का कोई अनुमान नहीं लग सकता। आह! यदि ऐसा हो जाय, तो––"

यह कहते-कहते वे अपने काल्पनिक सुख में निमग्न हो गये। थोड़ी देर के बाद फिर बोले––"डाक्टर कहते हैं कि जन्मान्ध के सिवा सबकी आँखें ठीक हो सकती हैं; परन्तु डाक्टर निपुण होना चाहिये। मेरा एक मित्र अमेरिका गया था। आँखें बनाना