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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/८७

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अँधेरी दुनिया

जी चाहता है, दरवाजे तोड़ कर बाहर निकल जायँ; परन्तु तुम लगातार कई वर्षों से इसी अवस्था में हो और फिर भी––"

मैंने अपनी व्याकुलता से भरी हुई, प्रसन्नता को छिपाने की चेष्टा करते हुए कहा––"तो क्या मैं देखने लगूँगी? यह आपको निश्चय है?"

"निस्सन्देह तेरह दिन के पश्चात्।"

"बहुत प्रसन्न हो रहे होंगे?"

"कुछ न पूछो। मेरा एक-एक क्षण साल-साल के बराबर बीत रहा है। मैं झुँझला उठता हूँ, कि यह समय शीघ्र क्यों नहीं बीत जाता। मैं तेरहवें दिन के लिये पागल हो रहा हूँ।"

"और यदि यह प्रसन्नता, यह आशा निर्मूल सिद्ध हुई, तो?"

"यह नहीं हो सकता,। यह असम्भव है।"

"आशा प्रायः धोखे दिया करती है।"

"परन्तु यह आशा नहीं है।"

सचमुच यह आशा नहीं थी। स्वयं मुझे भी निश्चय था, कि यह आशा नहीं है। फिर भी मैंने उनके हृदय की थाह लेने और अपने विश्वास को और दृढ़ करने के विचार से पूछा––"क्यों?"

"डाक्टर ने कहा है।"

"परन्तु डाक्टर परमात्मा नहीं है।"

थोड़ी देर के लिये वे चुप हो गये, जैसे आनन्द की कल्पना में किसी दुःख का विचार आ जाय, और फिर मेरे दोनों हाथों को