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पृष्ठ:गल्प समुच्चय.djvu/८८

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गल्प-समुच्चय

अपने हाथों में दबाकर बोले—"डाक्टर अपनी विद्या में अद्वितीय है। उसका वचन झूठा नहीं हो सकता। मैं इस समय ऐसा प्रसन्न हूँ, जैसे किसी राजा ने इम्पीरियल बैङ्क के नाम चेक दे दिया हो। अब रुपया मिल जाने में कोई सन्देह नहीं है। केवल तेरहवें दिन की प्रतीक्षा है। न राजा दीवालिया हो सकता है, न डाक्टर का वचन झूठा हो सकता है। तुम यों ही अपने सन्देह से मेरे हृदय को विकल कर रही हो।"

बारह दिन बीत गये। अब केवल एक दिन शेष था। सोचती थी, कल क्या होगा? कभी आशा हृदय की कली खिला देती थी, कभी निराशा हृदय में हलचल मचा देती थी। मैंने आँखों पर पट्टी बाँधकर बारह दिन बिता दिये थे, अब एक दिन बिताना कठिन हो गया। जैसे यात्री पड़ाव के निकट पहुँचकर घबरा जाता है। उस समय उसके हृदय में कैसी उद्विग्रता होती है, कैसी अधीरता। वह घण्टों की राह मिनटों में तय करना चाहता है। बार-बार झुँझला उठता है, जैसे किसी ने काँटे चुभो दिये हों। यही दशा मेरी थी। मैं चाहती थी, यह दिन एक क्षण बनकर उड़ जाय और। मैं पट्टी आँखों से उतारकर फेंक दूँ; परन्तु प्रकृति के अटल नियम को किसने बदला है। समय ने उसी प्रकार धीरे-धीरे अपने मिनटों के पैरों से चलना जारी रक्खा। उसे मेरी क्या परवा थी?

सायङ्काल था। वे कचहरी से वापस आ गये और सूरजपाल को (यह मेरे बेटे का नाम है) उठाये हुए कमरे के अन्दर आये और मेरे पास बैठकर बोले—"कल इस समय क्या होगा?"