पाँचवी कथा एक दल, जिसमें बहुत-से अफसर और अँगरेज-खियाँ थी, देहली से भागने और मेरठ जाने का हाल इस तरह कहता है कि पहले यह इरादा था कि पहाड़ी पर जो बुर्ज है, उसमें किले बंद होकर विद्रोहियों का सामना किया जाय, कितु यह बात व्यर्थ थी, इसलिये भागने का ही निश्चय किया गया। जब चलने लगे, तो ३८ और ७४ नं. रेजिमेंट के सिपाही भी चल दिए। थोड़े-से सिपाही अफसरों के पास, झडे के निकट, शेष रह गए। मेमों की गाड़ियाँ करनाल को चली। अफसरों को सिपाहियों ने यह सलाह दी कि तत्काल भाग जाना चाहिए, बल्कि उन्हें जबर्दस्ती भगा दिया, क्योंकि यहाँ भी विद्रोहियों के आने का भय था। यह संध्या का समय था, अँधेरा फैल रहा था कि बंदूकों की आवाजें आनी शुरू हुई, और छावनी के बहुतेरे बँगलों में आग लग गई, जिसकी रोशनी दूर-दूर तक पहुँच रही थी। अब सिवा भागने के कोई उपाय बचने का न था । जो अफसर वहाँ बाक़ी थे, उन्होंने भी दुबारा प्रबंध करना व्यर्थ समझकर जगह छोड़ दी। क्योंकि जो क्षण व्यतीत होता था, भयानक होता जाता था। निदान, वहाँ से भागे, और रात-भर जंगलों में फिरते रहे। कभी थककर धरती पर लेट जाते थे कि
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