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पाँचवीं कथा

इनकी जान बचाई। अब इनके पास कपड़े तक न थे। इसी

दशा में, धूप की गर्मी में, जलते-भुनते शाम को एक गाँव में पहुँचे। यह गाँँव ब्राह्मणों का था। इसमें एक फ़क़ीर के तकिए पर जा पड़े, और तीन दिन तक वहाँ ठहरे रहे। यहाँ उन्हें अपने रक्षकों द्वारा बहुत आराम मिला। उन लोगों ने बहुत सेवा-सुश्रपा की। यहाँ तक कि एक जर्राह भो जख्मों के इलाज को दिया, और जो दवा गाँँव में मिल सकती थी, इकट्ठी की। यहाँ से एक दूसरे गाँव में उसके जमींदार की इच्छानुसार चले गए। यह ज़मींदार जर्मन था। वहाँँ उनको यहाँ से भी ज्यादा आराम मिला। रहने के लिये मकान और खाने-कपड़े का अच्छी तरह प्रबंध कर दिया गया। इस रात को अधिक आशा बँधी, क्योंकि मेरठ से सवारों का एक रिसाला, जो चिट्ठी भेजकर मँगाया गया था, आ गया। जमींदार ने सवारियों का प्रबंध कर दिया, और आठवें दिन ये मेरठ पहुँँच गए।



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