आठवी कथा अब हमारे पास एक पैसा भी न बचा। रात को लगभग एक बजे मैं और मेरी साथी खी डॉक्टर साहब को एक पेड़ के नीचे छोड़कर किसी गाँव की तलाश में निकली। बड़ी खोज के बाद एक ज़मींदार हमें अपने साथ ले गया। रहने को मकान और खाने को दूध-रोटी दी । उस दिन शाम को हम कर्नाल चल दिए। इसी तरह रात ही रात में सात-सात मील हम किसी तरह चलते थे, क्योंकि हमारे साथ एक घायल भी था। गाँव-गाँव से रोटी माँगकर खाते और धरती पर सो रहते थे। कहीं-कही लोग दया करते थे, कहीं बुरी तरह दुख देते और ताना देते थे। यहाँ तक कि कड़ी धूप में भी कोई छाया में बैठने न देता था। इसी तरह हमने ६ दिन किसी तरह कष्ट-पूर्वक काटे । दिन को, धूप के समय किसी वृक्ष या पुल के नीचे, रहते थे। सदा जान के लाले पड़े रहते थे। पानी भी न मिलता था। पर इस खबर से एक प्रकार से धैर्य वैधता था कि बादशाह के सिपाहियों के हाथ से शायद बच जायेंगे। छठे दिन बालगढ़ में पहुंचे। यह गांव रानी मंगलादेवी का है। यहाँ रानी साहबा ने हमारी बहुत सेवा की, और रक्षा का वचन दिया । पर दूसरे दिन ये आशाएँ जाती रहीं। क्योंकि रानी के श्रादमी हमारे साथ मेहरबानी देखकर नाराज हो गए, और रानी को धमकाने लगे कि यदि तुम इनको यहाँ से न हटाओगी, तो हम तुम्हारा गाँव लूट लेंगे।
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