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ग़दर के पत्र


थे कि देहाती आ गए, और हमें रोकना चाहा। हमारे साईस ने कहा कि अगर आगे जाओगी, तो मारी जाओगी, क्योंकि देहाती लोग रास्ते में आपकी प्रतीक्षा में खड़े हैं। यहाँ भी हमको कठिनाई दिखाई पड़ती थी, क्योंकि हमारे घोड़े उन्होंने पकड़ लिए थे, और नंगी तलवारे साईस के सिर पर तनी हुई थीं। आगे का भी भय था। खैर, इनसे तो किसी तरह बच- गए, पर अब सोचा कि कंपनी बाग़ को लौट चलें, और वहाँ कल तक छिपी रहे। विवश हो यही किया। मालियों ने हमें रक्षा में लेने का वचन भी दिया। बड़ी देर बाद एक दल लाठियाँ लेकर हमारे पास आया, और कहा, जो कुछ तुम्हारे पास है, दे दो। सामना करना व्यर्थ था, क्योंकि हम केवल दो अबला स्त्रियाँ थीं, और वह डाकुओं का पूरा दल-का-दल था। डॉक्टर साहब के ऐसा गहरा घाव लगा था कि वह बोल भी नहीं सकते थे।

हम दोनो के पास जेवर और जवाहरात का एक-एक संदूक़ था। इसके सिवा १००) नक़द भी थे, जिसको बचाने के विचार से साथ लाए थे। अब यह विचार व्यर्थ था। उन्होंने सब छीन लिया। इसके सिवा मेपल साहब की स्त्री का गाउन, टोपी, कपड़े और दो रक्त-रंजित चादरें भी उतरवा ली। बग्धी भी तोड़ डाली, और घोड़ों पर सवार होकर चल दिए। उनके बाद भी कई लुटेरे आए, और तब तक पीछा न छोड़ा, जब तक हमें बिलकुल नंगा न कर दिया।