पृष्ठ:ग़दर के पत्र तथा कहानियाँ.djvu/१३४

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नवीं कथा १२५ का भी मित्र था। मैंने उसे लिख भेजा कि आप मुझे अपने पास बुला लें । उन्होंने कृपा कर अपने दीवान को खाँ साहव के पास भेजकर मुझे माँगा, पर उसने स्वीकार न किया। इसके बाद मैंने और एक मित्र को आगरे को लिखा कि तुम २० सिपाही नौकर रखकर बालागढ़ आओ, और मुझे चुपचापछुड़ा ले जाओ। पर उनके पास रुपया न था, न उन्हें सिपाही मिले। इससे वह सहायता भी प्राप्त न हो सकी। अब कोई आशा न बची थी। केवल ईश्वर ही पर आशा थी, जिसने इस समय तक जान बचाई है, वही आगे भो रक्षा करेगा । २६ जुलाई को थोड़ी-सी गोरा फौज के सिपाही आए, और उक्त विद्रोही की मोज को हापुड़ में हराया । इस हार से किले में इतना आनंक छा गया कि सन घबरा गए । मैं ३० तारीख को प्रातःकाल ही कैदखाने से निकलकर बुलंदशहर भाग गया। कुछ दिन बाद लैप्ट साहब ने, जिनसे मेरा परिचय था, मेरे भागने का हाल सुनकर उक्त महोदय और वेनलाप साहब मजिस्ट्रट, मेरठ ने एक कृपा-पत्र लिखकर और विलसन साहब के रिसाले के कुछ सवार मेरे लेने को भेजे । मेरठ में विलियम साहब ने मुझ पर बड़ो कृपा और अत्यंत खातिर की। यह साहव बड़े सभ्य और दयालु अफसर हैं। उनकी आमा मैंने किले बालागढ़ का नक्शा और विड़ियों के हालात लिखकर उन्हे दिए। के अनुसार