पथ-प्रदर्शक का कहना है कि दुर्भाग्य से विद्रोहियों ने उन्हें
पहचानकर पकड़ लिया। बातचीत के बद भेद खुल गया
कि वे भारतीय लिबास में अंगरेज़ हैं। अंत में हाजस साहब
ने स्वीकार भी किया कि वे कौन हैं, और किस वास्ते किसके
पास आए थे। इसी समय उक्त साहब महोदय ने मेरा नाम
भी बता दिया। साहब को तो वहीं मार डाला, और अब मुझे
ढूँढ़ने निकले।
मेरे कछ मित्रों ने खिजर सुलतान शाहज़ादे से सिफ़ारिश करके आज्ञा ले ली कि मैं ताल्लुक़दार वलीदादखाँ के साथ चला जाऊँ। यह बालागढ़ का ताल्लुक़ेदार था -- जो वुलंदशहर से २ मील के अंतर पर है। खाँ साहब सरकार के पेंशन- या फ्ता नमकहलाल व्यक्ति थे, और १० जून तक नमकहलाल रहे।
वलीदादखाँ के यहाँ की सवारियाँ भी दिल्ली से जा रही थीं। मैं भी इन्हीं के साथ एक अलहदा पालकी मैं बैठकर शहर से निकला। खाँ साहब ने दिल्ली में मुझसे वादा किया था कि वह मुझे आगरे तक पहुँचा देंगे, तथा सदैव सरकार के हितैषी रहेगे, पर कुछ स्थानों का कुप्रबंध और गड़बड़ी देखकर बेवक़ूफ पलट गया, और मुझे क़ैद कर लिया।
यद्यपि मैं अत्यंत परेशान और शोक पूर्ण था, पर सदा छुट-
कारे की चिता में रहता था। राव गुलाबसिंह सरकार का हितैषी
और इज्ज़तदार गूजर ताल्लुक़दार था। वह वलीदादखाँ