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ग़दर के पत्र


जिक हंसी-मज़ाक से करना चाहिए। ऐसा ही किया गया। जिसकी वजह से फिर किसी ने हम पर संदेह नहीं किया।

दूसरे दिन हम बहुत सबेरे अँधेरे ही से बैल पर सवार होकर चल दिए। तीसरे दिन हम हिंदुओं के एक मंदिर के पास ठहरे, और एक पीपल के पेड़ के नीचे बैठ गए। वहीं एक बड़ा तालाब था, और एक गोसाईं वहाँ आकर ठहर गया। उसके बाद धोबी खाना लेने गया। चूँकि हवा ठंडी थी, मैं सो गया। जब धोबी खाना लेकर वापस आया, और मुझे जगाया, तो उससे गुसाईं ने कहा -- मैं जानता हूँ, यह फ़िरंगी है, हमने इसकी बहुत मिन्नत-खुशामद की, और कहा -- हम पर रहम करो, तब उसने कहा -- जाओ, मैं किसी को कष्ट नहीं देता।

अब मैं जनाने भेष से तंग आ गया था, और मुझे लज्जा आती थी। मैंने इस विचार से कि अब तो देहली से बहुत दूर निकल आए हैं, यहाँ कौन बोलेगा, भेष बदलकर धोबियों का मर्दाना लिबास पहन लिया। रास्ते में गाँववाले हमें गालियाँ और ताने देते थे, पर किसी ने मार-पीट न की।

रास्ते में मैंने देखा, एक लाश कटी-पिटी पड़ी है। और, जब मैंने देखा कि एक गिद्ध बोलता हुआ इस लाश पर मँडरा रहा है, तब मुझे बड़ा रंज हुआ। मैं उस लाश के पास गया, तो एक और जवान अँगरेज़ की लाश उसके पास पड़ी हुई थी, जिसकी आयु १६ वर्ष के लगभग थी। उसके