कठिनाई से गारद तक पहुँची, परंतु इन सब घटनाओं के होने
पर भी शहर में इस वक्त़ सब तरफ़ अमन-अमान था। इसके बाद मेगज़ीन की तरफ से तोपों के चलने की आवाज सुनाई दी। मैं यह कहना भूल गया कि दोपहर के बाद ७४ नं० की रेजि- मेंट मेजर एबट साहब की अधीनता में आ चुकी थी। इसके एक घंटे बाद मेगज़ीन के उड़ने की आवाज़ आई। परंतु हम यह न जान सके कि मेगजीन किसने उड़ाया, और क्योंकर उड़ा। थोड़ी देर बाद लेफ्टिनेंट ड्यू ली साहब ने, जो मेगज़ीन से भागकर हमारे पास आए थे, कहा कि मैंने और सार्जंटों ने यथासंभव बचाया। सब तरह लाचार होकर उड़ा दिया था। क्योंकि शाह देहली के भेजे जंगी जीने आ चुके थे, और विद्रोही भीतर पहुँच गए थे, तथा खलासी आदि भी विद्रोहियों से मिल गए थे। विवश हो हमने उसे उड़ा दिया। हम नहीं जानते कि इसमें कितने आदमी मरे। किंतु मैं किसी तरह बचकर भाग निकला। उक्त साहब के चेहरे से भी प्रकट होता था कि यदि ईश्वर की कृपा न होती, तो इनका बचना संभव न था, क्योंकि बारूद के आघात से तमाम चेहरा काला हो गया था।
उस रोज़ दिन-भर ब्रगेडियर साहब का कोई हुक्म हमारे पास न आया। यद्यपि हमने कई बार उनके पास आदमी भेजे कि वह कोई आज्ञा हमें दें, किंतु एक बार भी उक्त साहब और ब्रगेडियर मेजर इधर देखने तक न आए कि क्या हो रहा है। यद्यपि उनका यहाँँ आना बहुत ज़रूरी था। उन्होंने दो तोपें