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दो-चार नियम बना लिये हैं, और बड़ी कठोरता से उनका पालन करता हूँ। उनमें से एक नियम यह भी है, कि मित्रों से लेन-देन का व्यवहार न करूँगा। अभी तुम्हें अनुभव नहीं हुआ है, लेकिन कुछ दिनों में हो जायेगा। मित्रों से जहाँ लेन-देन शुरू हुआ, वहाँ मनमुटाब होते देर नहीं लगती। तुम मेरे प्यारे दोस्त हो, मैं तुमसे दुश्मनी नहीं करना चाहता, इसलिये मुझे क्षमा करो।

रमा ने इस पत्र को भी फाड़कर फेंक दिया और कुर्सी पर बैठकर दीपक की ओर टकटकी बाँधकर देखने लगा। दीपक उसे दिखायी देता था, इसमें सन्देह है। इतनी ही एकाग्रता से यह कदाचित् आकाश की काली, अभेद्य मेघराशि की ओर ताकता।

मन की एक दशा वह भी होती है, जब आँखें खुली होती हैं, और कुछ नहीं सूझता; कान खुले रहते हैं, और कुछ सुनायी नहीं देता।

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संध्या हो गयी थी। म्युनिसिपैलिटी के अहाते में सन्नाटा छा गया था। कर्मचारी एक-एक करके जा रहे थे। मेहतर कमरों में झाड़ू लगा रहा था। चपरासियों ने जूते पहनना शुरू कर दिया। खोंचे वाले दिन भर की बिक्री के पैसे गिन रहे थे, पर रमानाथ अपनी कुर्सी पर बैठा रजिस्टर लिख रहा था।

आज भी वह प्रातःकाल आया था; पर आज भी कोई बड़ा शिकार न फँसा, वही दल रुपये मिलकर रह गये। अब अपनी आवरू बचाने का उसके पास और क्या उपाय था ? रमा ने रतन को झाँसा देने की ठान ली। वह खूब जानता था कि रतन की यह अधीरता केवल इसलिए है कि शायद उसके रुपये मैंने खर्च कर दिये। अगर उसे मालूम हो जाये कि उसको रुपये तत्काल मिल सकते हैं, तो वह शान्त हो जायेगी। रमा उसे रुपये से भरी हुई थैली दिखाकर उसका सन्देह मिटा देना चाहता था। वह खजांची साहब के चले जाने की राह देख रहा था। उसने आज जान-बूझकर देर की थी। आज की आमदनी के आठ सौ रूपये उसके पास थे। इसे वह अपने घर ले जाना चाहता था। खजांची ठीक चार बजे उठा। उसे क्या ग़रज थी कि रमा से आज की आमदनी माँगता ? रुपये गिनने से ही छुट्टी मिली। दिन भर वही लिखते-लिखते और रुपये गिनते-गिनते बेचारे की कमर दुख रही थी। रमा को

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