जालपा ने पूछा-अम्माजी को क्यों धमका रहे थे? सच बताओ, क्या देखते थे?
रमा ने सिर खुजलाते हुए कहा-कुछ याद नहीं आता, यों ही बकने लगा हूँगा।
जालपा अच्छा तो करवट सोना। चित सोने से आदमी बकने लगता है।
रमा करवट लेट गया, पर ऐसा जान पड़ता था मानो चिन्ता और शंका दोनों आँखों में बैठीं निद्रा के आक्रमण से उनकी रक्षा कर रही हैं। जागते हुए दो बज गये। सहसा जालपा उठ बैठी, और सुराही से पानी उड़ेलती हुई बोली-बड़ी प्यास लगी थी, क्या तुम अभी तक जाग रही हो?
रमा-हाँ जी, नींद उचट गयी है। मैं सोच रहा था, तुम्हारे पास दो सौ रुपये कहाँ से आ गये? मुझे इसका आश्चर्य है।
जालपा-ये रुपये मैं मायके से लायी थी, कुछ विदाई में मिले थे, कुछ पहले से रखे थे।
रमा०- तब तो तुम रुपये जमा करने में बड़ी कुशल हो। यहाँ क्यों नहीं कुछ जमा किया?
जालपा ने मुसकराकर कहा-तुम्हें पाकर अब रुपये की परवा नहीं रही।
रमा०-अपने भाग्य को कोसती होगी?
जालपा-भाग्य को क्यों कोसूँ? भाग्य को वह औरतें रोएँ जिनका पति निखट्टू हो, शराबी हो, दुराचारी हो, रोगी हो, तानों से स्री को छेदता रहे, बात-बात पर बिगड़े। पुरुष मन का हो तो स्त्री उसके साथ उपवास करके भी प्रसन्न रहेगी।
रमा ने विनोद के भाव से कहा-तो मैं तुम्हारे मन का हूँ?
जालपा ने प्रेम-पूर्ण भाव से कहा-मेरी जो आशा थी, उससे तुम कहीं बढ़कर निकले। मेरी तीन सहेलियाँ हैं। एक का भी पति ऐसा नहीं। एक एम० ए० है, पर सदा रोगी! दूसरा विद्वान् भी है और धनी भी, पर वेश्यागामी। तीसरा घरघुस्सू है और बिलकुल निखट्टू।
रमा का हृदय गदगद हो उठा। ऐसी प्रेम की मूर्ति और दया की देवी