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'आपके त्याग को धन्य है। ऐसे ब्राह्मणों से धर्म की मर्यादा बनी हुई है। कुछ देर बैठिए तो, सेठजी आते होंगे। ब्राह्मणों के परम भक्त हैं। त्रिकाल संध्यावन्दम करते हैं, महाराज। तीन बजे रात को गंगातट पर पहुँच जाते हैं और वहाँ से आकर पूजन पर बैठ जाते है। दस बजे भागवत का पारायण करते हैं। मध्याह्न भोजन पाते हैं तब कोठी में आते हैं। तीन-चार बजे फिर संध्या करने चले जाते हैं। आठ बजे थोड़ी देर के लिए फिर आते हैं। नौ बजे फिर ठाकुरद्वारे में कीर्तन सुनते हैं और फिर संध्या करके भोजन पाते हैं। थोड़ी देर में आते ही होंगे। आप कुछ देर बैठे तो बड़ा अच्छा हो। आपका स्थान कहाँ है?'

रमा ने प्रयाग न बतलाकर काशी बतलाया। इस पर मुनीमजी का आग्रह और बड़ा; पर रमा को यह शंका हो रही थी कि वहीं सेठ जी ने कोई धार्मिक प्रसंग छेड़ दिया तो सारी कलई खुल जायगी। किसी दूसरे दिन आने का बचन देकर उसने पिंड छुड़ाया।

नौ बजे वह वाचनालय से लौटा तो डर रहा था कि कहीं देवीदीन ने कम्बल देखकर पूछा—कहाँ से लाये, तो क्या जवाब दूँगा! कोई बहाना कर दूँगा, एक पहचान की दुकान से उधार लाया हूँ।

देवीदीन ने कम्बल देखते ही पूछा—सेठ करोड़ीमल के यहाँ पहुँच गये क्या महाराज?

रमा ने पूछा— कौन सेठ करोड़ीमल?

अरे वही, जिसकी वह लाल कोठी है।'

रमा कोई बहाना न कर सका। बोला—हाँ, मुनीमजी ने पिंड ही न छोड़ा। बड़ा धर्मात्मा जीव है।

देवीदीन ने मुस्कराकर कहा-बड़ा धर्मात्मा ! उसी के थामे तो यह घरती थमी है, नहीं तो अब तक मिट गयी होती !

रमा०-काम तो धर्मात्माओं ही के करता है, मन का हाल ईश्वर जाने जो सारे। दिन पूजा-पाठ और दान-व्रत में लगा रहे, उसे धर्मात्मा नहीं तो और क्या कहा जाय।

देवी०-उसे पापी कहना चाहिए, महापापी। दया तो उसके पास से होकर भी नहीं निकली। उसकी जूट को मिल है। मजदूरो के साथ जितनी

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