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के सभी सजा पा जायंगे। शायद दो- चार को फांसी भी हो जाय। किस पर यह हत्या पडे़गी?

उसने फिर सोचा; मानो किसी पर हत्या न पड़ेंगी। कौन जानता है, हत्या पड़ती है या नहीं। लेकिन अपने स्वार्थ के लिए—— ओह! कितनी बड़ी नीचता है ! यह कैसे इस बात पर राजी हुए? अगर म्युनिसिपैलिटी के मुकदमा चलाने का भय भी था, तो दो-चार साल की कैद के सिवा और क्या होता। उससे बचने के लिए इतनी घोर नीचता पर उतर आये !

अब अगर मालूम भी हो जाय, कि म्युनिसिपैलिटी कुछ नहीं कर सकती, तो अब हो ही क्या सकता है। इनकी शहादत तो हो ही गयी।

सहसा एक बात किसी भारी कील की तरह उसके हृदय में चुभ गयी !   क्यों न यह अपना बयान बदल दें ? उन्हें मालूम हो जाय कि म्युनिसिपैलिटी उनका कुछ नहीं कर सकती, तो शायद खुद ही अपना बयान बदल दें। यह बात उन्हें कैसे बतायी जाय ? किस तरह सम्भव है ?

वह अधीर होकर नीचे उतर आयी और देवीदीन को इशारे से बुलाकर बोली——क्यों दादा, उनके पास कोई खत भी नहीं पहुंच सकता ? पहरेबाली को दस-पाँच रुपये देने से तो शायद खत पहुँच जाय।

देवीदीन ने गर्दन हिलाकर कहा——मुश्किल है। पहरे पर बड़े अंचे हुए आदमी रखे गये हैं। मैं दो बार गया था। सबी ने फाटक के सामने खड़ा भी न होने दिया।

'उस बँगले के आस-पास क्या है?'

'एक ओर तो दूसरा बँगला है, एक ओर एक कलमी आम का बाग है, और सामने सड़क है।'

'वह शाम को घूमने-घामने तो निकलते ही होंगे ?'

हाँ, बाहर कुरसी डालकर बैठते हैं। पुलिस के दो-एक अफ़सर भी साथ रहते हैं।'

'अगर कोई उस बाग में छिपकर बैठे, तो कैसा हो। जब उन्हें अकेले देखे, खत फेंक दे। वह जरूर उठा लेंगे।'

देवीदीन ने चकित होकर कहा—— हाँ, हो तो सकता है। लेकिन अकेले मिलें तब तो।

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