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खयाल किया था, कि एक दिन यह जायदाद मेरी जीविका का आधार होगी। इतनी भविष्यचिन्ता वह कर ही न सकती थी। उसे इस जायदाद के खरीदने में, उसके सँवारने और सजाने में वही आनन्द आता था, जो माता अपनी सन्तान को फलते-फूलते देखकर पाती है। उसमें स्वार्थ का भाव न था, केवल अपनेपन का गर्व था, वही ममता थी। पर पति की आँखें बन्द होते ही उसके पाले और गोद के खेलाये बालक भी उसकी गोद से छीन लिये गये। उसका उन पर कोई अधिकार ही नहीं। अगर वह जानती कि एक दिन यह कठिन समस्या आयेगी, तो वह चाहे रुपये लुटा देती या दान कर देती, पर सम्पत्ति की कील अपनी छाती पर न गाड़ती। पंडितजी की ऐसी कौन बहुत बड़ी आमदनी थी ! क्या गर्मियों में वह शिमले न जा सकती थी ? दो चार नौकर न रखे जा सकते थे? अगर वह गहने ही बनवाती, तो एक-एक मकान के मूल्य का एक-एक गहना बनवा सकती थी; पर उसने इन बातों को कभी उचित सीमा से आगे न बढ़ने दिया। केवल यही स्वप्न देखने के लिए? यही स्वप्न ? इसके सिवा और था ही क्या ? जो कल उसका था, उसकी ओर आज आँखें उठाकर वह अब देख भी नहीं सकती ? कितना महँगा था। वह स्वप्न ! हाँ, वह, अब अनाथिनी थी। कल तक दूसरों को भीख देती थी। आज उसे खुद भीख मांगनी पड़ेगी। और कोई आश्रय नहीं ! पहले भी वह अनाथिनी थी, केवल भ्रम-वश अपने को स्वामिनी समझ रही थी। अब उस भ्रम का सहारा भी नहीं रहा।

सहसा उसके विचारों ने पलटा खाया। मैं क्यों अपने को अनाथिनी समझ रही हूँ ? क्यों दूसरे के द्वार भीख माँगूं। संसार में लाखों ही स्त्रियाँ मेहनत-मजूरी करके जीवन-निर्वाह करती हैं। क्या मैं कोई काम नहीं कर सकती ? क्या मैं कपड़ा नहीं सी सकती, किसी चीज़ की छोटी-मोटी दूकान नहीं रख सकती ? लड़के भी पढ़ा सकती हूँ। यही न होगा, लोग हँसेंगे, मगर मुझे उस हँसी की क्या परवाह। वह मेरी हँसी नहीं है, अपने समाज की हँसी है।

शाम को द्वार पर कई ठेलेवाले आ गये। मणिभूषण ने आकर कहा——चाचीजी आप जो-जो चीजें कहें लदवाकर भेजवा हूँ। मैंने एक मकान ठीक कर लिया है।

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