पृष्ठ:ग़बन.pdf/२७४

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

दे, यह महाशय बिल्कुल झूठ बोल रहे हैं, सरासर झूठ; और इसी वक्त इसका सबूत दे दे। वह इस आवेश को पूरे बल से दबाये हुए थी। उसका मन अपनी कायरता पर उसे धिक्कार रहा था। क्यों वह इसी वक्त सारा वृत्तान्त नहीं कह सुनाती ? पुलिस उसकी दुश्मन हो जायगी, हो जाय। कुछ तो अदालत को खयाल होगा। कौन जाने, इन गरीबों की जान बच जाय। जनता को तो मालूम हो जायगा कि यह झूठी शहादत है। उसके मुंह से एक बार आवाज निकलते-निकलते रह गयी। परिणाम के भय ने उसकी जु़बान पकड़ ली।

आखिर उसने वहाँ से उठकर चले जाने ही में कुशल समझी।

देवीदीन उसे उतरते देखकर बरामदे में चला आया और दया से सने हुए स्वर में बोला——क्या घर चलती हो बहूजी ?

जालपा ने आंसुओं के वेग को रोक कर कहा—— हाँ, यहाँ अब नहीं बैठा जाता।

हाते के बाहर निकलकर देवीदीन ने जालपा को सान्त्वना देने के इरादे से कहा——पुलिस ने जिसे एक बार बूटी सुंघा दी, उस पर किसी दूसरी चीज़ का असर नहीं हो सकता।

जालपा ने घृणा के भाव से कहा——यह सब कायरों के लिए है।

कुछ दूर दोनों चुपचाप चलते रहे। सहसा जालपा ने कहा——क्यों दादा, अब और तो कहीं अपील न होगी ! कैदियों का यहीं फैसला हो जायगा ?

देवीदीन इस प्रश्न का आशय समझ गया। बोला——नहीं, हाईकोर्ट में अपील हो सकती है।

फिर कुछ दूर तक दोनों चुपचाप चलते रहे। जालपा एक वृक्ष की छाँह में खड़ी हो गयी और बोली——दादा, मेरा जी चाहता है, आज जज साहब से मिलकर सारा हाल कह दूँ! शुरू से जो कुछ हुआ सब कह सुनाऊँ। मैं सबूतः दे दूंगी, तब तो मानेंगे ?

देवीदीन ने आँख फाड़कर कहा——जज साहब से !

जालपा ने उसकी आँखों से आँखें मिलाकर कहा——हाँ !

देवीदीन ने दुविधे में पड़कर कहा——मैं इस बारे में कुछ नहीं कह सकता बहूजी। हाकिम का वास्ता। न जाने चित पड़े या पट।                                  

ग़बन
२६९