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वह जालपा, जो अपने घर बात-बात पर मना किया करती थी, अब सेवा, त्याग और सहिष्णुता की मूर्ति थी। जग्गो मना करती, पर वह मुंह अँधेरे सारे घर में झाड़ू लगा आती, चौका-बरतन कर डालती, आँटा गूँध कर रख देती', चूल्हा जला देती। तब बुढ़िया का काम केवल रोटियां सेंकना था। छूत-विचार को भी उसने ताक पर रख दिया था। बुढ़िया उसे ठेल-ठालकर रसोई में ले जाती और कुछ-न-कुछ खिला देती। दोनों में माँ-बेटी का-सा प्रेम हो गया था।

मुक़दमे की सब कार्रवाई समाप्त हो चुकी थी। दोनों पक्ष के वकीलों की बहस हो चुकी थी। केवल फैसला सुनाना बाकी था। आज उसकी तारीख थी। आज बड़े सवेरे घर के काम-धन्धों से फुर्सत पाकर जालपा दैनिक-पत्र वाले की आवाज़ पर कान लगाये बैठी थी, मानो आज उसी का भाग्य-निर्णय होने वाला है। इतने में देवीदीन ने पत्र लाकर उसके सामने रख दिया। जालपा पत्र पर टूट पड़ी और फैसला पढ़ने लगी। फैसला क्या था, एक खयाली कहानी थी, जिसका प्रधान नायक रमा था। जज ने बार-बार उसकी प्रशंसा की थी। सारा अभियोग उसके बयान पर अवलम्बित था।


देवीदीन ने पूछा -- फैसला छपा है?

जालपा ने पत्र पढ़ते हुए कहा -- हाँ, है तो।

'किसकी सजा हुई?'

'कोई नहीं छूटा। एक को फाँसी की सजा मिली, पांच को दस-दस साल और आठ को पाँच-पाँच साल की। उसी दिनेश को फाँसी हुई।'

यह कहकर उसने समाचार-पत्र रख दिया और एक लम्बी साँस लेकर बोली -- इन बेचारों के बाल-बच्चों का न जाने क्या हाल होगा?

देवीदीन ने तत्परता से कहा -- तुमने जिस दिन मुझसे कहा था, उसी दिन से मैं इन सबों का पता लगा रहा हूँ। आठ आदमियोंका तो अभी तक ब्याह ही नहीं हुआ, और उनके घरवाले मजे में हैं। किसी बात की तकलीफ नहीं है। पाँच आदमियों का विवाह तो हो गया है; पर घर के लोग खुश हैं। किसी के घर रोज़गार होता है, कोई जमींदार है, किसी के बाप-चाचा नौकर है। मैंने कई आदमियों से पूछा। यहाँ कुछ चन्दा भी किया गया है। अगर उनके घरवाले लेना चाहें तो दिया जायगा। खाली दिनेश तबाह है। दो

                                                                                   

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