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कहीं भीषण। संभव था, वह अपने को कर्तव्य की वेदी पर बलिदान कर देता, दो-चार साल की सजा के लिए अपने को तैयार कर लेता। शायद इस समय उसने अपने आत्म-समर्पण का निश्चय कर लिया था; पर अपने साथ जालपा को भी संकट में डालने का साहस वह किसी तरह न कर सकता था। वह पुलिस के पंजे में कुछ इस तरह दब गया था कि अब उसे बेदाग़ निकल जाने का कोई मार्ग न दिखाई देता था। उसने देखा कि इस लड़ाई में मैं पेश नहीं पा सकता। उसके मिजाज की तेजी गायब हो गयी। विवश होकर बोला——आखिर आप लोग मुझसे क्या चाहते हैं !

इंसपेक्टर ने दारोगा की ओर देखकर आंख मारी, मानो कह रहे हों, आ गया पंजे में ! और बोले——बस इतना ही कि आप हमारे मेहमान बने रहें, और मुकदमें के हाईकोर्ट से तय हो जाने के बाद यहाँ से रुखसत हो जायें, क्योंकि उसके बाद हम आपकी हिफाजत के जिम्मेदार न होंगे। अगर कोई सार्टिफिकेट लेना चाहेंगे, तो वह दे दी जायगी; लेकिन उसे लेने या न लेने का आपको पूरा अख्तियार है। अगर आप होशियार हैं तो उसे लेकर फायदा उठायेंगे, नहीं इधर-उधर के धक्के खायेंगे। आपके ऊपर गुनाह बे-लज्जत की मसल साबिक आयेगी। इसके सिवा हम आपसे और कुछ नहीं चाहते। हलफ़ से कहता हूँ, हर एक चीज जिसकी आपको ख्वाहिश हो, यहाँ हाजिर कर दी जायगी; लेकिन जब तक मुकदमा खत्म न हो जाय, आप आजाद नहीं हो सकते।

रमानाथ ने दीनता से पूछा——सैर करने तो आ सकूँगा, या वह भी नहीं ?

इंस्पेक्टर ने सूत्ररूप से कहा——जी नहीं !

दारोगा ने उस सूत्र की व्याख्या की—आपको वह आजादी दी गयी थी; पर आपने उसका बेजा इस्तेमाल किया ! जब तक इसका इत्मीनान न हो जाय कि आप उसका जायज इस्तेमाल कर सकते हैं या नहीं, आप उस हक से महरूम रहेंगे।

दारोगा ने इंसपेक्टर की तरफ देखकर मानो इस व्याख्या की दाद चाही, जो उन्हें सहर्ष मिल गयी।

तीनों अफसर रुखसत हो गये और रमा एक सिगार जलाकर इस विकट परिस्थिति पर विचार करने लगा।

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