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की तो उसे विशेष चिन्ता न थी, घात लग जाये, तो वह छ:महीने में चुका देगा। भय यही था, कि बाबूजी सुनेगें तो जरूर नाराज होंगे। लेकिन ज्यों-ज्यों आगे बढ़ता जाता था जालपा को इन आभूषणो से शोभित देखने की उत्कंठा इस शंका पर विजय पाती जाती थी। घर पहुँचने की जल्दी में उसने सड़क छोड़ दी, और एक गली में घुस गया। सधन अंधेरा छाया हुआ था। बादल तो उसी वक्त छाये हुए थे, जब घर से चला था 1 गली में घुसा ही था, कि पानी की बूंदें सिर पर छरें की तरह पड़ीं। जब तक छतरी खोले, वह लथ-पथ हो चुका था। उसे शंका हुई, इस अन्धकार में कोई आकर दोनों चीजें छीन न ले; पानी की झरझर में कोई आवाज भी न सुने। अंधेरी गलियों में खून तक हो जाते हैं। पछताने लगा, नाहक इधर से आया।दो-चार मिनट देर ही में पहुँचता, तो ऐसी कौन-सी आफत आ जाती। असामयिक दृष्टि ने उसकी आनन्द-कल्पनाओं में बाधा डाल दी। किसी तरह गली का अन्त हुआ और सड़क मिली। लालटेने दिखाई दी। प्रकाश में कितना विश्वार उत्पन्न करनेवाली शक्ति है, आज इसका उसे यथार्थ अनुभव हुआ।

वह घर पहुँचा तो दयानाथ बैठे हुक्का पी रहे थे। वह उस कमरे में न गया। उनकी आँख बचाकर अन्दर जाना चाहता था, कि उन्होंने टोका- इस वक्त कहाँ गये थे ?

रमा ने उन्हें जवाब न दिया। कहीं वह अखबार सुनाने लगे, तो घण्टो की खबर लेंगे। सीधा अन्दर जा पहुँचा। जालपा द्वार पर खड़ी उसकी राह देख रही थी, तुरन्त उसके हाथ से छतरी ले ली और बोली- तुम तो बिलकुल भीग गये। कहीं ठहर क्यों न गये?

रमा०- पानी का क्या ठिकाना, रात-भर बरसता रहे ?

यह कहता हुआ रमा ऊपर चला गया। उसने समझा था, जालपा भी पीछे-पीछे आती होगी;पर वह नीचे बैठी अपने देवरों से बातें कर रही थी, मानो उसे गहनों की याद ही नहीं है। जैसे वह बिलकुल भूल गई है, कि रमा सराफे से आया है।

रमा ने कपड़े बदले, और मन में झुंझलाता हुआ नीचे चला आया। उसी समय दयानाथ भोजन करने आ गये सब लोग भोजन करने बैठ गये। जालपा ने जब्त तो किया था, पर इस उत्कंठा की दशा में आज

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