कर्मयोगशास्त्र। तो यह भी अंधकार में छिप गया है अर्थात् वह साधारण मनुष्यों की समझ में नहीं पा सकता । इसलिये महा-जन जिस मार्ग से गये हों वही (धर्म का) मार्ग है" (मभा. यन. ३१२. ११५)। ठीक है ! परन्तु महा-जन किस को कहना चाहिये ? उसका अर्थ " वडा अयवा यातसा जनसमूह " नहीं हो सकता क्योंकि, जिन साधारण लोगों के मन में धर्म-अधर्म की शंका भी कभी उत्पक्ष नहीं होती, उनके यतलाये मार्ग से जाना मानो कठोपनिपद् में वर्णित “अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः " वाली नीति घी को चरितार्थ करना है ! अय यदि महा-जन का अर्थ बड़े बड़े सदाचारी पुरुप लिया जाय और यही अर्थ उक्त श्लोक में अभि. प्रेत ई-तो, उन महा-जनों के प्राचरण में भी एकता कहाँ है? निष्पाप श्रीराम- चन्द्र ने, अग्निद्वारा शुद्ध हो जाने पर भी, अपनी पत्नी का त्याग केवल लोकापवाद के ही लिये किया और सुग्रीव को अपने पक्ष में मिलाने के लिये, उससे “तुल्या- रिमित्र "-अथांव जो तेरा शत्रु वही मेरा शत्रु और जो तेरा मिन्न वही मेरा मित्र, इस प्रकार संधि करके, बेचारे वालि का वध किया, यद्यपि उसने श्रीरामचन्द्र का कुछ अपराध नहीं किया था! परशुराम ने तो पिता की आज्ञा से प्रत्यक्ष अपनी माता का शिरश्छेद कर डाला! यदि पाण्डवों का आचरण देखा जाय तो पाँचों की एक ही स्त्री थी ! स्वर्ग के देवताओं को देखें, तो कोई अहल्या का सतीत्व भ्रष्ट करनेवाला है, और कोई (प्रमा) मृगरूप से अपना कन्या की अभिलाप करने के कारण रुद्र के बाण से विद्ध हो कर आकाश में पड़ा हुआ है (ऐ. मा. ३.३३)! इन्हों यातों को मन में ला कर उत्तररामचरित्र नाटक में भवभूति ने लव के मुख से कह- लाया है कि " वृक्षास्ते न विचारणीयचरिताः "-इन वृद्धों के कृत्यों का बहुत विचार नहीं करना चाहिये । अंग्रेज़ी में शैतान का इतिहास लिखनेवाले एक अन्थकार ने लिखा है कि, शैतान के साथियों और देवदूतों के झगड़ों का हाल देखने से मालूम होता है कि कई यार देवताओं ने ही दैत्यों को कपटजाल में फाँस लिया है। इसी प्रकार कौपीतकी ब्राह्मणोपनिपद् (कौपी. ३. १ और ऐ. ग्रा. ७. २८ देखो) में इन्द्र प्रतर्दन से कहता है कि “मैंने वृन्न को (यद्यपि वह बामण था) मार डाला । अरुन्मुख संन्यासियों के टुकड़े टुकड़े करके भेड़ियों को (खाने के लिये) दिये और अपनी कई प्रतिशाओं का भंग करके प्रल्हाद के नाते- दारों और गोजों का तथा पौलोम और कालखंज नामक दैत्यों का वध किया, (इससे) मेरा एक बाल भी बांका नहीं हुआ- “तस्य मे तन न लोम च मा मीयते !" यदि कोई कहे कि " तुम्हें इन महात्माओं के पुरे कर्मों की ओर ध्यान देने का कुछ भी कारण नहीं है। जैसा कि तैत्तिरीयोपनिषद् ( १. ११.२) में बतलाया है, उनके जो कर्म अच्छे हो उन्हों का अनुकरण करो, और सब छोड़ दो । उदाहर- णार्थ, परशुराम के समान पिता की आज्ञा का पालन करो, परन्तु माता की हत्या मंत करो" तो वही पहला प्रश्न फिर भी उठता है कि बुरा कर्म और भला कर्म सम. झने के लिये साधन है क्या? इसलिये अपनी करनी का उक्त प्रकार से वर्णन कर
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