पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१०९

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७२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । इन्द्र प्रवर्दन से फिर कहता है कि "जो पूर्ण यात्मज्ञानी है उसे मातृवध, पितृक्ष, भ्रूणहत्या अथवा स्तेय (चोरी) इत्यादि किसी भी कर्म का दोष नहीं लगता, इस बात को तू भली भांति समझ ले और फिर यह भी समझ ले कि आत्मा किसे कहते है-ऐसा करने से तेरे सारे संशयों की निवृत्ति हो जायगी। इसके बाद इन्द्र ने प्रतर्दन को आत्मविद्या का उपदेश दिया। सारांश यह है कि “महाजनो येन गतः स पन्याः " यह युकि यद्यपि सामान्य लोगों के लिये सरल है तो भी सब यातों में इसस निर्वाह नहीं हो सकता; और अन्त में महा-जनों के आचरण का सन्चा तत्व कितना भी गूढ़ हो तो भी आत्मज्ञान में घुस कर विचारवान पुरुषों को उसे हूँढ़ निकालना ही पड़ता है। " न देवचरितं चरत "-देवताओं के केवल बाहरी चरित्र के अनुसार आचरण नहीं करना चाहिये इस उपदेश का रहस्य भी यही है। इसके सिवा, कर्म-अकर्म का निर्णय करने के लिये कुछ लोगों ने एक और सरल युक्ति वतलाई है। उनका कहना है कि, कोई भी सद्गुण हो, उसकी अधि- कता न होने देने के लिये हमें हमेशा यत्न करते रहना चाहिय; क्योंकि, इस अधिकता से ही अन्त में सद्गुण दुर्गुण बन बैठता है । जैसे, दान देना सचमुच सद्गुण है। परन्तु " अति दानाद्वलिबद्धः " दान की अधिकता होने से ही राजा वलि फाँसा गया। प्रसिद्ध यूनानी पण्डित अरिस्टाटल ने अपने नीतिशास्त्र के अन्य में कर्म-अकर्म के निर्णय की यही युक्ति वतलाई है और स्पष्टतया दिख- लाया है कि प्रत्येक सद्गुण की अधिकता होन पर, दुर्दशा कैसे हो जाती है। कालिदास ने भी रघुवंश में वर्णन किया है कि केवल शुरता व्याघ्र सरीखे श्वापद का र काम है और केवल नीति भी डरपोकापन है इसलिये, अतिथि राजा तल- वार और राजनीति के योन्य मित्रण से, अपने राज्य का प्रबन्ध करता था (खु. १७.४७)। भर्तृहरि ने भी कुछ गुण-द्रोपों का वर्णन कर कहा है कि ज्यादा बोलना वाचालता का लक्षण है और कम बोलना घुम्मापन है, यदि ज्यादा खर्च करे तो उड़ाज, और कम करे तो कंजूस, आगे बढ़े तो दुःसाहसी और पीछे इंटे तो ढीला, अतिशय आग्रह करे तो ज़िद्दी और न करे तो चंचल, ज्यादा सुशामद करे तो नीच और ऐंठ दिखलावे तो घमंडी है परन्तु इस प्रकार की स्यूल कसोटी से अंत तक निर्वाह नहीं हो सकता क्योंकि, 'अति' किसे कहते हैं और नियमित , किसे कहते हैं इसका भी तो कुछ निर्णय होना चाहिये ना तथा, यह निर्णय कौन किस प्रकार करे? किसी एक को अथवा किसी एक मौके पर, जो वात 'अति , होगी वही दूसरे को, अथवा दूसरे मौके पर, कम हो जायगी । हनुमानजी को, पैदा होते ही, सूर्य को पकड़ने के लिये उड़ानमारना कोई कठिन काम नहीं मालूम पड़ा (वा.रामा. ५.३५); परन्तु यही वात औरों के लिये कठिन क्या, असंभव ही जान पड़ती है। इसलिये जब धर्म-अधर्म के विषय में संदेह उत्पन्न हो तव प्रत्येक मनुष्य को ठीक वैसा ही निर्णय करना पड़ता है जैसा श्येन ने राजा शिवि से कहा है:- अविरोधातु यो धर्मः स धर्मः सत्यविक्रम ।