कर्मयोगशास्त्र 603 विरोधिपु महीपाल निश्चित्य गुरुलाघवम् । न बाधा विद्यते यत्र तं धर्म समुपाचरेत् ।। अर्थात् परस्पर-विरद्ध धर्मों का तारतम्य अथवा लघुता और गुरुता देख कर ही, प्रत्येक मौके पर, अपनी बुद्धि के द्वारा, सच्चे धर्म अथवा कर्म का निर्णय करना चाहिये (मभा. यन. १३१.११,१२ और मनु. ६.२६ देखो)। परन्तु यह भी नहीं कहा जा सकता कि इतने ही से धर्म-अधर्म के सार-प्रसार का विचार करना ही शंका के समय, धर्म-निर्णय की एक सच्ची बसौटी है। क्योंकि, व्यवहार में अनेक बार देखा जाता है कि, अनेक पंडित लोग अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार सार-प्रसार का विचार भी भिन्न भिन्न प्रकार से किया करते हैं और एक ही बात की नीतिमत्ता का निर्णय भी भिन्न भिन्न रीति से किया करते हैं। यही अर्थ उपर्युक्त "तोऽप्रतिष्ठः" वचन में कहा गया है। इसलिये अब हमें यह जानना चाहिये कि धर्म-अधर्म-संशय के इन प्रश्नों का अचूक निर्णय करने के लिये अन्य कोई साधन या उपाय है या नहीं, यदि हैं तो कौन से हैं, और यदि अनेक उपाय हो तो उनमें श्रेष्ट कौन है। चप्स; इस बात का निर्णय कर देना ही शास का पाम है। शास्त्र का यही लक्षण भी है कि “अनेकसंशयोच्छेदि परोक्षार्थस्य दर्शकम् । अर्थात् अनेक शंकाओं के उत्पन्न होने पर, सव से पहले उन विषयों के मिश्रा को अलग सलग कर दे जो समझ में नहीं पा सकते हैं, फिर उसके अर्थ को सुगम और स्पष्ट कर दे, और जो बातें आँखों से देख न पड़ती ही उनका, अथवा आगे होनेवाली बातों का भी, यथार्थ ज्ञान करा दे। जब हम इस यात को सोचते हैं कि ज्योतिषशास्त्र के सीखने से प्रागे होनेवाले ग्रहणों का भी सब हाल मानून हो जाता है, तय उक्त लक्षण के " परोक्षार्थस्य दर्शकम् " इस दूसरे भाग की सार्थकता अच्छी तरह देख पड़ती है। परन्तु अनेक संशयों का समाधान करने के लिये पहले यह जानना चाहिये कि वे कौन सी शंकाएँ हैं। इसी लिये प्राचीन और प्राचीन ग्रन्धकारों की यह रीति है कि, किसी भी शास का सिद्धान्तपन बतलाने के पहले, उस विषय में जितने पक्ष हो गये हों, उनका विचार करके उनके दोप और उनकी न्यूनताएँ दिखलाई जाती हैं। इसी रीति को स्वीकार गीता में, कर्म-अकर्म-निर्णय के लिये प्रतिपादन किया हुआ सिद्धान्त-पक्षीय योग अर्थात् युक्ति बतलाने के पहले, इसी काम के लिये जो अन्य युक्तियाँ पंडित लोग बतलाया करते हैं, उनका भी अव हम विचार करेंगे। यह बात सच है कि ये युक्तियाँ हमारे यहाँ पहले विशेष प्रचार में न धों; विशेप करके पश्चिमी पंडितों ने ही वर्तमान समय में उनका प्रचार किया है। परन्तु इतने ही से यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी चर्चा इस ग्रन्य में न की जावे। क्योंकि, न केवल तुलना ही के लिये, किन्तु गीता के आध्यात्मिक कर्मयोग का महत्व ध्यान में आने के लिये भी इन युक्तियों को-संक्षेप में भी क्यों न हो-जान लेना अत्यन्त आवश्यक है। गी.र. १०
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