चोथा प्रकरण। आधिभौतिक मुखवाद । दुःखादुद्धिनते सवः सर्वत्य सुखमीसितम् ।। महाभारन, शांति. २६६। मनु आदि शाजकारों ने "अहिंता सत्यमस्तेयं इत्यादि जो नियम बनाये हैं 'उनजागरण क्या है, वे नित्य है कि अनित्य,नकी वाति कितनी है, उनका मूलतत्व क्या है, यदि इनमें से कोई दो परम्पर-विरोधी धनं एक ही समय में आ पड़ें तो किस मार्ग का स्वीकार करना चाहिये. इत्यादि प्रश्नों का निर्णय ऐसी सामान्य युनियों से नहीं हो सकता जो “महाजनो येन गतस्य पंयाः" या "अनि सर्वत्र वजयन् " आदि वचनों से सूचित होती है। इसलिये जब यह देखना चाहिये, कि इन प्रश्नों का उचित निर्णय फैले हो और श्रेयस्कर मार्ग के निश्चिन करने के लिये नित्रान्त युनि क्या है। अयान यह जानना चाहिये कि परस्परविरुद्ध धनों की लघुना और गुल्ता-न्यूनाधिक महता किस घटि से निश्रित की जाये । अन्य शास्त्रीय प्रतिपादनों के अनुसार कर्म-अमन-विचनसंबंधी प्रश्नों को भी चर्चा करने के तीन माग है जैसे प्राधिौतिक, आधिदैविक और आध्यानिक । इनके मंदों का वर्णन पिद्यले प्रकरण में कर चुके हैं। हमारे शाकारों के मतानुसार प्राध्यामिक मार्ग होइन सब मागों में श्रेष्ठ है। परन्तु अध्याममा का महत्व पूर्ण रोनि से ध्यान में चने के लिये दूसरे दो भागों का भी विचार करना आवश्यक है. इसलिये पहले इस प्रकरण में कम अकर्म-परीक्षा के आधिभौतिक मूलतत्वों की चर्चा की गई है। जिन प्राधिौतिक शास्त्रों की आज कल बहुत ज्दति हुई है उनमें व्यक पदायों के बार और दृश्य गुणों ही का विचार विशेपता से किया जाता है इसलिये जिन लोगों ने आधिभौतिक शास्त्रों के अध्ययन ही में अपनी स्त्र बिता दी है और जिनने इस शाख की विचार पनति का अभिमान है, क्हें बाल परिणामों केही विचार करने की आदत सी पड़ जाती है। इसका परिणाम यह होता है कि उनकी तत्वज्ञानटष्टि घोड़ी बहुत संकृत्रित हो जाती है और किती नी यान का विचार करते समय वे लोग आध्यात्मिक, पारलौकिक, अन्चक या अश्य कारणों को विशेष महत्व नहीं देते। परनु, यद्यपि वे लोग उक्त कारण से श्राव्यानिक और पारलौकिक दृष्टि को छोड़ दें, तथापि उन्हें यह मानना पड़ेगा कि मनुष्यों के सांसारिक व्यवहारों को सरलतापूर्वक चलाने और लोकसंग्रह करने के लिये नीति-नियनों को अत्यन्त आव- से सभी छड़कते है और मुख की इच्छा समी करने हैं।"
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