आधिभौतिक सुखपाद । श्यकता है । इसी लिये हम देखते हैं कि उन पंडितों को भी कर्मयोगशास्त्र बहुत महत्य का मालूम होता है कि जो लोग पारलौकिक विषयों पर अनास्था रखते हैं या जिन लोगों का अव्यक्त अध्यात्मज्ञान में (अर्थात् परमेश्वर में भी) विश्वास नहीं है। ऐसे पंडितों ने, पश्चिमी देशों में, इस बात की बहुत चर्चा की है- और यह चर्चा अब तक जारी है-कि केवल प्राधिभौतिक शास्त्र की रीति से (अधांत केवल सांसारिक दृश्य युक्तिवाद से ही) फर्म-अकर्म-शाख की उपपत्ति दिसलाई जा सकती है या नहीं। इस चर्चा से उन लोगों ने यह निश्चय किया है कि, नीतिशास्त्र का विवेचन करने में अध्यात्मशास्त्र की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। किसी कर्म के भले या घुरे होने का निर्णय उस कर्म के बाद परिणामों से, जो प्रत्यक्ष देख पड़ते हैं, किया जाना चाहिये और ऐसा ही किया भी जाता है । क्योंकि, मनुष्य जो जो कर्म करता है वह सब सुख के लिये या दुःख-निवारणार्थ ही किया करता है । और तो क्या सब मनुष्यों का सुख' ही ऐहिक परमादेश है और यदि सब कमी का अंतिम दृश्य फल इस प्रकार निश्चित है तो नीति-निर्णय का सच्चा मार्ग यही होना चाहिये कि, सुख-माप्ति या दुःख-निवारणा के तारतम्य अर्थात् लघुता और गुरुता को देख कर सब कर्मों की नीतिमत्ता निश्चित की जावे जबकि व्यवहार में किसी वस्तु का भला-बुरापन केवल बाहरी उपयोग ही से निश्चित किया जाता है, जैसे जो गाय छोटे साँगीवाली और सीधी हो कर भी अधिक दूध देती है वही अच्छी समझी जाती है, तव इसी प्रकार जिस कर्म से सुख प्राप्ति या दुःख-निवारणात्मक याच फल अधिक हो उसी को नीति की घष्टि से भी श्रेयस्कर समझना चाहिये । जब हम लोगों को केवल बाल और दृश्य परिणामों को लघुता-गुरुता देख कर नितिमत्ता के निर्णय करने की यह सरल और शाखीय कसौटी प्राप्त हो गई है, तब उसके लिये प्रात्म-सनात्म के गहरे विधार-सागर में चकार खाते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। “अर्क चेन्मधु विन्देत किमर्च पर्वतं ब्रजेत् ""-पास ही में यदि मधु मिल जाय तो मधुमक्खी के छते की खोज के लिये जंगल में क्या जाना चाहिये। किसी भी कर्म के केवल बाय फल को देख कर नीति और अनीति का निर्णय करनेवाले उक्त पत को हमने " आधिभौतिक सुखवाद" कहा है। क्योंकि, नीतिमता का निर्णय करने के लिये, इस मत के अनुसार, जिन सुख-दुःखों का विचार किया जाता है वे सब प्रत्यक्ष दिखलानेवाले और केवल बारा अर्थात या पदार्थों का इंद्रियों के साथ संयोग होने पर उत्पन होनेवाले, यानी प्राधिभौतिक हैं । और, यह पंथ भी सब संसार का केवल श्राधिभौतिक पष्टि से विचार करनेवाले पंडितों से ही, चलाया गया है। इसका विस्तृत वर्णन इस ग्रन्थ में करना संभव है-भिल भिम अन्यकारों के
- कुछ लोग इस शोवा में भी ' शब्द से 'भाका या मदार के पेड़' का भी अर्थ
लेते हैं। परम ब्रह्मासूत्र ३.४.३ को शांकरभाष्य की टीका में आनन्दगिरि ने अर्क शब्द का समीप किया है । इस लोक का दूसरा चरण यह है सिद्धस्यायस्य संमासी को विद्वान्यनमाचरेत् ।"