पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/११८

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आधिभौतिक सुखवाद । ७६ है, इसका कारण यह नहीं है कि वह बचे पर प्रेम रखती हो; सचा कारण तो यही है कि उसके स्तनों में दूध के भर जाने से उसे जो दुःख होता है उसे कम करने के लिये, अयवा भविष्य में यही लड़का मुझे प्यार करके सुख देगा इस स्वार्थ-सिद्धि के लिये ही, यह यचे को दूध पिलाती है ! इस बात को दूसरे वर्ग के प्राधि- भौतिक-यादी मानते हैं कि स्वयं अपने ही सुख के लिये भी क्यों न हो परन्तु भविष्य पर दृष्टि रख कर, ऐसे नीतिधर्म का पालन करना चाहिये कि जिससे दूसरों को भी सुख हो-यस, यही इस मत में और चार्वाक के मत में भेद है। तथापि चार्वाक-मत के अनुसार इस मत में भी यह माना जाता है कि मनुष्य केपल विषय-सुखरूप स्त्रार्य के साँचे में ढला हुआ एक पुसला है। इंग्लैंड में हॉन्स और मांस में हेल्वेशियस ने इस मत का प्रतिपादन किया है। परन्तु इस मत के अनुयायी अब न तो इंग्लैंड में ही और न कहीं बाहर ही अधिक मिलेंगे। हॉन्स के नीतिधर्म की इस उपपत्ति के प्रसिद्ध होने पर बटलर सरीखे विद्वानों ने उसका खण्डन करके सिद्ध किया कि मनुष्य-स्वभाव केवल स्यार्थी नहीं है। स्वार्थ के समान ही उसमें जन्म से ही भूत-दया, प्रेम, कृतज्ञता आदि सद्गुण भी कुछ अंश में रहते हैं। इसलिये किसी का व्यवहार या कर्म का नैतिक दृष्टि से विचार करते समय केवल स्वार्य या दूरदर्शी स्वार्य की ओर ही ध्यान न दे कर, मनुष्य-स्वभाव के दो स्वाभाविक गुणों (अर्थात् स्वार्थ और परार्थ) की और नित्य ध्यान देना चाहिये। जब हम देखते है कि व्याघ्र सरीखे कर जानवर भी अपने बच्चों की रक्षा के लिये प्राण देने को तैयार हो जाते हैं, तब हम यह कभी नहीं कह सकते कि मनुष्य के हृदय में प्रेम और परोपकार बुद्धि जैसे सद्गुण केवल स्वार्थ ही से उत्पन्न हुए हैं। इससे सिन्द होता है कि धर्म-अधर्म की परीक्षा केवल दूरदर्शी स्वार्थबुद्धि से करना शास्त्र की सृष्टि से भी उचित नहीं है। यह बात हमारे प्राचीन पंडितों को भी अच्छी तरह से मालूम थी कि केवल संसार में लिप्त रहने के कारण जिस मनुष्य की बुद्धि शुद्ध नहीं रहती है, वह मनुष्य जो कुछ परोपकार के नाम से करता है वह बहुधा अपने ही हित के लिये करता है। महाराष्ट्र में तुकाराम महाराज एक बड़े भारी भगवदा हो गये हैं । वे कहते हैं कि "बहू, दिखलाने के लिये तो शेती है सास के हित के लिये परन्तु हृदय का भाव कुछ और ही रहता है। बहुत से पंडित तो हेल्वेशियस से भी आगे बढ़ गये हैं। उदाहरणार्थ, “ मनुष्य की स्वार्थप्रवृत्ति तथा परार्थप्रवृत्ति भी दोपमय होती है- प्रवर्तनालक्षणा दोपाः" इस गौतम न्यायसूत्र (१.१.१६) के आधार पर घमसूत्र- भाष्य में श्रीशंकराचार्य ने जो कुछ कहा है (वैसू. शांभा. २.२.३), उस पर •ॉस का मत उसके Leviathan नामक ग्रन्थ में संगृहीत है तथा चटलर का मत उसके Sermons on Human Nature नामक निवन्ध में है। हेल्वेशियस की पुस्तक का सारांश मोले ने अपने Diderot. विषयक अन्य (Vol. II. Chap. V) में दिया है।