पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/११७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । चाले आधिभौतिकवादियों की, यह अत्यन्त कनिष्ठ श्रेणी, कर्मयोगशास्त्र के सब अन्यकारों द्वारा और सामान्य लोगों के द्वारा भी, बहुत ही अनीति की, त्याज्य और गर्ष मानी गई है। अधिक क्या कहा जाय, यह पंथ नीतिशास्त्र अथवा नीति-विवे चन के नाम का भी पात्र नहीं है। इसलिये इसके बारे में अधिक विचार न करके आधिभौतिक सुख-वादियों के दूसरे वर्ग की ओर ध्यान देना चाहिये । खुलमखुल्ला या प्रगट स्वार्थ संसार में चल नहीं सकता । क्योंकि, यह प्रत्यक्ष अनुभव की बात है कि यद्यपि आधिभौतिक विपय-सुख प्रत्येक को इष्ट होता है तथापि जव हमारा सुख अन्य लोगों के सुखोपभोग में बाधा डालता है तब चे लोग विना विघ्न किये नहीं रहते । इसलिये दूसरे कई आधिभौतिक पंडित प्रतिपादन किया करते हैं कि, यद्यपि स्वयं अपना सुख या स्वार्थ-साधन ही हमारा उद्देश है, तथापि सब लोगों को अपने ही समान रियायत दिये विना सुख का मिलना सम्भव नहीं है इसलिये अपने सुख के लिये ही दूरदर्शिता के साथ अन्य लोगों के सुख की ओर भी ध्यान देना चाहिये । इन आधिभौतिकवादियों की गणना हम दूसरे वर्ग में करते हैं। बल्कि यह कहना चाहिये कि नीति की आधिभौतिक उपपत्ति का यथार्थ आरम्भ यहीं से होता है। क्योंकि इस वर्ग के लोग चार्वाक के मतानुसार यह नहीं कहते कि समाज-धारणा के लिये नीति के बन्धनों की कुछ आवश्यकता ही नहीं है, किन्तु इन लोगों ने अपनी विचार-दृष्टि से इस बात का कारण बतलाया है कि सभी लोगों को नीति का पालन क्यों करना चाहिये । इनका कहना यह है कि, यदि इस बात का सूक्ष्म विचार किया जाय कि संसार में अहिंसा-धर्म कैसे निकला और लोग उसका पालन क्यों करते हैं, तो यही मालूम होगा कि, ऐसे स्वार्थमूलक भय के सिवा उसका कुछ दूसरा आदिकारण नहीं है, जो इस वाक्प से प्रगट होता है - " यदि मैं लोगों को मारूंगा तो वे मुझे भी मार डालेंगे, और फिर मुझे अपने सुखों से हाथ धोना पड़ेगा।" अहिंसा-धर्म के अनुसार ही अन्य सब धर्म भी इसी या ऐसे ही स्वार्थमूलक कारणों से प्रचलित हुए हैं, हमें दुःख हुआ तो हम रोत हैं और दूसरों को हुआ तो हम दया आती है। क्यों ? इसीलिये न, कि हमारे मन में यह डर पैदा होता है कि कहीं भविष्य में हमारी भी ऐसी ही दुःखमय अवस्था न हो जाय। परोपकार, उदारता, दया, ममता, कृतज्ञता, नन्त्रता, मित्रता इत्यादि जो गुण लोगों के सुख के लिये आवश्यक मालूम होते हैं वे सव यदि उनका मूलस्वरूप देखा जाय तो अपने ही दुःख-निवारणार्य है। कोई किसी की सहायता करता है या कोई किसी को दान देता है। क्यों ? इसी लिये न, कि जब हम पर भी आ बीतेगी तव वे हमारी सहायता करेंगे। हम अन्य लोगों पर इसलिये प्यार रखते हैं कि वे भी इस पर प्यार करें। और कुछ नहीं तो, हमारे मन में अच्छा कहलाने का स्वार्थमूलक हेतु अवश्य रहता है। परोपकार और परार्थ दोनों शब्द केवल प्रांतिमूलक हैं। यदि कुछ सच्चा है तो स्वार्थ और स्वार्थ कहते हैं अपने लिये सख-प्राहि या अपने दुःख निवारण को । माता बच्चे को दूध पिलाती