पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२३

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गीतारहस्य भयया कर्मयोगशाला काट दिया करत हैं। दृष्टि से उचित और प्राय मानना चाहिये और इसी प्रकार का प्राचरण करना इस संसार में मनुष्य का सच्चा कर्तव्य है ।" आधिभौतिक सुख-वादियों का उक्त तत्व आध्यात्मिक पन्थ को मंजूर है । यदि यह कहा जाय तो भी कोई आपत्ति नहीं कि आध्यात्मिक-यादियों ने ही इस तस्व को अत्यन्त प्राचीन काल में ढूंढ निकाला था और भेद इतना ही है कि अव आधिभौतिक-चादियों ने उसका एक विशिष्ट रीति से उपयोग किया है । तुकाराम महाराज ने कहा है कि "संतजनों की विभूतियों केवल जगत के कल्याण के लिये हैं ये लोग परोपकार करने में अपने शरीर को श्रयात् इस तत्व की सचाई और योग्यता के विषय में एक भी सन्देह नहीं है। स्वयं श्रीमद्भगवहीता में ही, पूर्ण योगयुक्त अर्यात कर्मयोगयुक्त ज्ञानी पुरुषों के लक्षणों का वर्णन करते हुए, यह वात दो बार स्पष्ट कही गई है कि वे लोग " सर्वभूतहिते रताः" अर्थात् सब प्राणियों का कल्याण करने ही में निमग्न रहा करते हैं (गी. ५. २५; १२.४); और इस बात का पता दूसरे प्रकरण में दिये हुए महाभारत के “ यद्भूतहितमत्यन्तं तन् सत्यमिति धारणा" वचन से स्पष्टतया चलता है, कि धर्म-अधर्म का निर्णय करने के लिये हमारे शास्त्रकार इस तत्व को हपेशा ध्यान में रखते थे । परन्तु हमारे शास्त्रकारों के कयनानुसार सर्व भूतहित ' को ज्ञानी पुरुषों के आचरण का पाए लक्षण समझ कर धर्म-अधर्म का निर्णय करने के, किसी विशेष प्रसंग पर, स्यूल मान से उस तत्व का उपयोग करना एक बात है और उसी को नीतिमत्ता का सर्वस्व मान कर, दूसरी किसी बात पर विचार न करके, केवल इसी नींव पर नीतिशास्त्र का भव्य भवन निर्माण करना दूसरी बात है । इन दोनों में बहुत भिन्नता है । प्राधिभौतिक पंडित दूसरे मार्ग को स्वीकार करके प्रतिपादन करते हैं कि नीतिशास्त्र का, अध्यात्मविधा से, कुछ भी संबंध नहीं है । इसलिये हमें अब यह देखना चाहिये कि उनका कहना कहीं तक युक्तिसंगत है । 'सुख' और 'हित' दोनों शब्दों के अर्थ में बहुत भेद है। परन्तु यदि इस भेद पर भी ध्यान न दें, और 'सर्वभूत' का अर्थ “ अधि- कांश लोगों का अधिक सुख" मान लें, और कार्य-अकार्य-निर्णय के काम में केवल इसी तत्व का उपयोग करें, तो यह साफ देख पड़ेगा कि बड़ी बड़ी अनेक कठि- नाइयाँ उत्पन्न होती हैं । मान लीजिये कि, इस तत्व का कोई प्राधिभौतिक पंडित अर्जुन को उपदेश देने लगता; तो वह अर्जुन से क्या कहता? यही न कि, यदि युद्ध में जय मिलने पर अधिकांश लोगों का अधिक सुख होना संभव है, तो भीलम पितामह को भी मार कर युद्ध करना तेरा कर्तव्य है। दिखने को तो यह उपदेश यहुत सीधा और सहज देख पड़ता है परन्तु कुछ विचार करने पर इसकी अपूर्णता और अड़चन समझ में आजाती है । पहले यही सोचिये कि, अधिक यानी कितना? पांडवों की सात अक्षौहिणियाँ थीं और कौरवों की ग्यारह, इसलिये यदि पांडवों की हार हुई होती तो कौरवों को मुख हुआ होता-क्या इसी युक्तिवाद से पांडवों का पक्ष अन्याय्य कहा जा सकता है? भारतीय युद्ध ही की यात कौन कहे, और भी