गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । माना है एवं नीतिशास्त्र के अपने विवेचन का प्रारम्भ कता की शुद्ध बुद्धि (शुद्ध भाव) ही से किया है। यह नहीं समझना चाहिये कि आधिभौतिक सुख-बाद की यह न्यूनता बड़े बड़े आधिभौतिक-वादियों के ध्यान में नहीं पाई । घुम' ने स्पष्ट लिखा है-जव कि मनुष्य का कर्म (काम या कार्य) ही उसके शील का द्योतक है और इसी लिये जब लोगों में वही नीतिमत्ता का दर्शक भी माना जाता है, तब केवल वाह्य परिणामों ही से उस कर्म को प्रशंसनीय या गृहणीय मान लेना असम्भव है। यह वात मिल साहब को भी मान्य है कि " किसी कर्म की नीतिमचा कर्ता के हेतु पर अर्थात् वह उसे जिस बुद्धि या भाव से करता है उस पर, पूर्णतया अवलंबित रहती है।" पन्तु अपने पक्ष के मण्ढन के लिये मिल साहब ने यह युक्ति मिड़ाई है कि “जब तक याह्य कर्मों में कोई भेद नहीं होता तव तक कर्म की नीतिमत्ता, में कुछ भी फर्क नहीं हो सकता, चाहे कर्ता के मन में उस काम को करने की वासना किसी भी भाव से हुई हो" । मिल की इस युक्ति में साम्प्रदायिक आग्रह देख पड़ता है। क्योंकि वुद्धि या भाव में भिक्षता होने के कारण, यद्यपि दो कर्म दि. खने में एक ही से हाँ तो भी, वे तत्वतः एक ही योग्यता के कभी हो नहीं सकते। और, इसी लिये, मिल साहब की कही हुई “जय तक (वास) कर्मों में भेद नहीं होता, इत्यादि " मर्यादा को ग्रीन साहव निर्मूल वतलाते हैं। गीता का भी यह अभिप्राय है। इसका कारण गीता में यह बतलाया गया है कि, यदि एक ही धर्म-कार्य के लिये दो मनुष्य बराबर वरावर धन प्रदान करें तो भी-अर्थात् दोनों के बाह्य कर्म एक समान होने पर भी-दोनों की बुद्धि या भाव की भिन्नता के कारण, एक दान सात्त्विक और दूसरा राजस या तामस भी हो सकता है। इस विषय पर अधिक विचार, पूर्वी और पश्चिमी सतों की तुलना करते समय, करेंगे। अभी केवल इतना ही देखना है कि, कर्म के केवल बाहरी परिणाम पर ही अव- For as actions are objects of our moral sentiment, 60 far only as they are indications of the internal character, passions and offections, is is impossible that they can give ribe either to praise or blame, where they proceed not from these principles, but are derived altogether from external objects. Home's Inquiry concerning Human Understanding, Section VIII. Part II. (p. 368 of Hume's Essays The World Library Edition). f" Morality of the action depends entirely upon the inten- tion, that is upon what the agent wills to do. Bat the motive, that is, the feeling which makes him will so to do, when it makes no difference in the act, makes none in the morality." Mill's Utilitarianism, p. 27. | Green's Prolegomena to Elhics, $ 292 note. p. 348. 5th Cheaper Edition.
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