पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१२६

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आधिभौतिक सुखवाद । वाहरी परिणाम यद्यपि एकसा हो, तथापि श्रीमद्भगवद्गीता में पहले दान को सात्विक और दूसरे को राजस कहा है (गी. १७. २०, २१)। और, यह भी कहा गया है कि यदि वही दान कुपात्रों को दिया जाय तो वह तामस अथवा गर्य है। यदि किसी गरीव ने एक-आध धर्म-कार्य के लिये चार पैसे दिये और किसी अमीर ने उसी के लिये सौ रुपये दिये तो लोगों में दोनों की नैतिक योग्यता एक ही समझी जाती है। परन्तु यदि केवल “ अधिकांश लोगों का अधिक सुख" किसमें है, इसी बाहरी साधन द्वारा विचार किया जाय तो ये दोनों दान नैतिक दृष्टि से समान योग्यता के नहीं कहे जा सकते । “ अधिकांश लोगों का प्राधिक सुख " इस आधिभौतिक नीति-तत्त्व में जो बहुत बड़ा दोप है, वह यही है कि इसमें कर्ता के मन के हेतु या भाव का कुछ भी विचार नहीं किया जाता; और यदि अन्तस्थ हेतु पर ध्यान दें तो इस प्रतिज्ञा से विरोध खड़ा हो जाता है कि, अधिकांश लोगों का अधिक सुख ही नीतिमत्ता की एकमात्र कसौटी है। कायदा-कानून बनानेवाली सभा अनेक व्यक्तियों के समूह से बनी होती है। इसालये- उक्त मत के अनुसार, इस सभा के बनाये हुए कायदों या नियमों की योग्यता-अयो, ग्यता पर विचार करते समय, यह जानने की कुछ आवश्यकता ही नहीं कि सभा. सदों के अंतःकरणों में कैसा भाव था- हम लोगों को अपना निर्णय केवल इस बाहरी विचार के आधार पर कर लेना चाहिये कि इनके कायदों से अभिकों को अधिक सुख हो सकेगा या नहीं। परन्तु, उक्त उदाहरण से यह साफ साफ ध्यान में आ सकता है कि सभी स्थानों में यह न्याय उपयुक्त हो नहीं सकता । हमारा यह कहना नहीं है कि " अधिकांश लोगों का अधिक सुख या हित " वाला तत्व विलकुल ही निरुपयोगी है। केवल वाद परिणामों का विचार करने के लिये उससे बढ़ कर दूसरा तत्व कहीं नहीं मिलेगा। परन्तु हमारा यह कथन है कि, जव नीति की दृष्टि से किसी बात को न्याय्य अथवा अन्याय्य कहना हो तब केवल वाघ परि- णामों को देखने से काम नहीं चल सकता, उसके लिये और भी कई बातों पर विचार करना पड़ता है, अतएव नीतिमत्ता का निर्णय करने के लिये पूर्णतया इसी तत्व पर अवलंबित नहीं रह सकते, इसलिये इससे भी अधिक निश्चित और निर्दोष तत्व को खोज निकालना आवश्यक है। गीता में जो यह कहा गया है कि "कर्म की अपेक्षा बुद्धि श्रेष्ठ है" (गी, २.४८) उसका भी यही अभिप्राय है। यदि केवल वास कर्मों पर ध्यान दें तो वे बहुधा भ्रामक होते हैं। " स्नान-सन्ध्या, तिलक-माला" इत्यादि वाद्य कर्मों के होते हुए भी " पेट में क्रोधाने " का भड़कते रहना असम्भव नहीं है। परन्तु यदि हृदय का भाव शुद्ध हो तो बाह्य कर्मों का कुछ भी महत्त्व नहीं रहता है। सुदामा के 'मुठी भर चावल' सरीखे अत्यन्त अल्प बाह्य कर्म की धार्मिक और नैतिक योग्यता, आधिकांश लोगों को अधिक सुख देने वाले हजारों मन अनाज के बरावर ही, समझी जाती है। इसी लिये प्रसिद्ध जर्मन तत्त्वज्ञानी कान्ट'ने कर्म के वाद्य और दृश्य परिणामों के तारतम्य-विचार को गौण

  • Kant's Theory of Ethics, ( tran, by Abbott,) 6th Ed.P.6.