पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१३१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१२ गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाला लम्बित नहीं है। लोग जो कुछ किया करते हैं वह सब केवल प्राधिभौतिक सुख के ही लिये नहीं किया करते-वे आधिभौतिक सुख ही को अपना परम उद्देश नहीं मानते । बल्कि हम लोग यही कहा करते हैं कि, बाल सुखों की कौन कहे, विशेष प्रसंग आने पर अपनी जान की भी परवा नहीं करना चाहिये, क्योंकि ऐसे समय में आध्यात्मिक दृष्टि के अनुसार जिन सत्य आदि नीति-धर्मों की योग्यता अपनी जान से भी अधिक है, उनका पालन करने के लिये मनोनिग्रह करने में ही मनुष्य का मनुष्यत्व है। यही हाल अर्जुन का था। उसका भी प्रश्न यह नहीं था कि लड़ाई करने पर किसको कितना सुख होगा । उसका श्रीकृष्ण से यही प्रश्न था कि " मेरा, अर्थात् मेरे प्रात्मा का, श्रेय किसमें है सो मुझे यतलाइये" (गी. २.७, ३.२)। आत्मा का यह नित्य का श्रेय और सुख आत्मा की शान्ति में है। इसी लिये वृहदा- रण्यकोपनिपद (२.१.२) में कहा गया है कि " अमृतत्यस्य तु नाशान्ति वित्तेन " अर्थात् सांसारिक सुख और सम्पत्तिकै यथेष्ट मिल जाने पर भी प्रात्मसुख और शान्ति नहीं मिल सकती । इसी तरह कठोपनिपद में लिखा है कि जब मृत्यु ने नचिकेता को पुत्र, पौत्र, पशु, धान्य, द्रव्य इत्यादि अनेक प्रकार की सांसारिक सम्पत्ति देनी चाही तो उसने साफ जवाय दिया कि “ मुझे प्रात्मविद्या चाहिये, सम्पत्ति नहीं;" और 'प्रेय' अर्थात् इन्द्रियों को प्रिय लगनेवाले सांसारिक मुख में तया श्रेय' अर्थात् आत्मा के सचे कल्याण में भेद दिखलाते हुए (फळ.१.२.२) कहा है कि:- श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्ती संपरीत्य विविनक्ति धीरः। श्रेयो हि घोरोऽभिप्रेयसो वृणीत प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥ "जव प्रेय (तात्कालिक वास्स इन्द्रियसुख) और श्रेय (सच्चा चिरकालिक कल्याण) ये दोनों मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं तब बुद्धिमान् मनुष्य टन दोनों में से किसी एक को चुन लेता है । जो मनुष्य ययार्य में बुद्धिमान होता है, वह प्रेय की अपेक्षा श्रेय को अधिक पसन्द करता है। परन्तु जिसकी बुद्धि मन्द होती है। उसको आत्मकल्याण की अपेक्षा प्रेय अर्थात् बाह्य सुख ही शाधिक अच्छा लगता है।" इसलिये यह मान लेना उचित नहीं कि संसार में इन्द्रियगम्य विषय-मुख ही मनुष्य का ऐहिक परम उद्देश है तथा मनुष्य जो कुछ करता है यह सब केवल या अर्थात् आधिभौतिक सुख ही के लिये अथवा अपने दुःखों को दूर करने के लिये ही करता है। इन्द्रियगम्य वाय सुखों की अपेक्षा बुद्धिगम्य अन्तःसुख की, अर्थात् प्राध्या. त्मिक सुख की, योग्यता अधिक तो है ही परन्तु इसके साथ एक बात यह भी है कि विषय-सुख अनित्य है । यह दशा नीति-धर्म की नहीं है । इस यात को सभी मानते हैं कि अहिंसा, सत्य आदि धर्म कुछ बाहरी उपाधियाँ अर्थात् सुख-दुःखों पर अवलंबित नहीं है, किंतु वे सभी अवसरों के लिये और सब काल में एक समान उपयोगी हो सकते हैं। अतएव ये नित्य हैं । याह्य बातों पर अवलंयित न रहनेवाली, नीति-धर्मों की, यह नित्यता उनमें कहाँ से और कैसे आई-अर्थात् इस नित्यता का कारण क्या है? इस प्रश्न का आधिभौतिक-बाद से हल होना