पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१३०

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9 << आधिभौतिक सुखवाद। परीक्षा केवल परोपकार ही की दृष्टि से नहीं की जा सकती-अय उस कर्म की परीक्षा मनुष्यत्व की दृष्टि से ही, अर्थात् मनुष्यजाति में अन्य प्राणियों की अपेक्ष जिन जिन गुणों का उत्कर्ष हुआ है उन सब को ध्यान में रख कर ही, की जान चाहिये । अकेले परोपकार को ध्यान में रख कर कुछ न कुछ निर्णय कर लेने के बदले अब तो यही मानना पड़ेगा कि, जो कर्म सब मनुष्यों के 'मनुष्यत्व' या 'मनुष्यपन' को शोभा दे या जिस कर्म से मनुष्यत्व की वृद्धि हो, यही सत्कर्म और वही नीति-धर्म है । यदि एक बार इस व्यापक दृष्टि को स्वीकार कर लिया जाय तो, "अधिकांश लोगों का अधिक सुख" उक्त दृष्टि का एक अत्यन्त छोटा भोग हो जायगा -इस मत में कोई स्वतंत्र महत्व नहीं रह जायगा कि सब कर्मों के धर्म-अधर्म या नीतिमत्ता का विचार केवल “ अधिकांश लोगों का अधिक सुख तत्त्व के अनुसार किया जाना चाहिये - और तब तो धर्म-अधर्म का निर्णय करने क लिये मनुष्यत्व ही का विचार करना आवश्यक होगा । और, जब हम इस बात का सूक्ष्म विचार करने लगेंगे कि 'मनुष्यपन ' या 'मनुष्यत्व' का यथार्थ स्वरूप क्या है, तब हमारे मन में, याज्ञवल्क्य के अनुसार, आत्मा वा अरे द्रष्टव्यः" यह विषय आप ही आप उपस्थित हो जायगा । नीतिशास्त्र का विवेचन करनेवाले एक अमेरिकन ग्रन्थकारने इस समुच्चयात्मक मनुष्य के धर्म को ही "आत्मा" कहा है। उपर्युक्त विवेचन से यह मालूम हो जायेगा कि केवल स्वार्थ या अपनी ही विषय-सुख की कनिष्ठ श्रेणी से बढ़ते बढ़ते आधिभौतिक सुख-वादियों को भी परो- पकार की श्रेणी तक और अन्त में मनुष्यत्व की श्रेणी तक जैसे आना पड़ता है। परन्तु, मनुष्यत्व के विषय में भी, प्राधिभौतिक-वादियों के मन में प्रायः सब लोगों के बाह्य विषय-सुख ही की कल्पना प्रधान होती है। अतएव प्राधिभौतिक- वादियों की यह अंतिम श्रेणी भी-कि जिसमें अंतःसुख और अंतःशुद्धि का कुछ विचार नहीं किया जाता-हमारे अध्यात्मवादी शास्त्रकारों के मतानुसार निर्दोष नहीं है । यद्यपि इस बात को साधारणतया मान भी लें कि मनुष्य का सब प्रयत्न सुख प्राप्ति तथापि दुःख निवारण के ही लिये हुआ करता है, तथापि जव तक पहले इस बात का निर्णय न हो जाय, कि सुख किसमें है-आधिभौतिक अर्थात् सांसारिक विषयोपभोग ही में है अथवा और किसी में है तब तक कोई भी आधिभौतिक पक्ष प्राय नहीं समझा जा सकता । इस बात को आधिभौतिक सुख-वादी भी मानते हैं कि शारीरिक सुख से मानसिक सुख की योग्यता अधिक है । पशु को जितने सुख मिल सकते हैं वे सब किसी मनुष्य को दे कर उससे पूछो कि "क्या तुम पशु होना चाहते हो?" तो वह कभी इस बात के लिये राज़ी न होगा इसी तरह, ज्ञानी पुरुषों को यह बतलाने की आवश्यकता नहीं कि, तत्वज्ञान के गहन विचारों से बुद्धि में जो एक प्रकार की शान्ति उत्पन होती है उसकी योग्यता, सांसारिक सम्पत्ति और बायोपभोगसे, हज़ारगुणी बढ़ कर है। अच्छा; यदि लोकमत को देखें तो भी यही ज्ञात होगा कि, नीति का निर्णय करना केवल संख्या पर अव-