19 सुखदुःखविवेक। ६ उसके दुःख को देखने से हमारी कारस्य मृत्ति हमारे लिये असला हो जाती है। और इस दुःसहत्य की व्यया को दूर करने के लिये ही हम परोपकार किया गारते है। इस पन के स्वीकृत करने पर हमें महाभारत के अनुसार यह मानना पड़ेगा कि:- तृष्णार्तिप्रभवं दुःख दुःखातिप्रभव सुखम् ।। " पहले जय कोई तृष्णा उत्पन्न होती है तब उसकी पीड़ा से दुःा होता है और उल दुःख की पीड़ा से फिर सुख उत्पन्न होता है" (शां. २५. २२; १७४. १६)। संक्षेप में इस पंथ का यह कहना है कि, मनुष्य के मन में पहले मा-आध आशा, वासना या तृपणा उत्पन्न होती है और जब उसले दुःख होने लगे तब उस दुःख का जो निवारण किया जाये, बद्दी मुख कहलाता है सुख काई दृसती भिन्न वस्तु नहीं है। अधिक क्या कहें, इस पन्ध के लोगों ने यह भी अनुमान निकाला है कि मनुष्य की सब सांसारिक प्रत्रियों फेवल बासनात्मक और तृषणात्मक ही है। जब तक सब सांसारिक कर्मों का त्याग नहीं किया जागगा तय नक वासना या तृष्णा की जड़ उसब नहीं सकती; शोर जब तक नृष्णा या वासना की जड़ नष्ट नहीं हो जाती तब तक सत्य और नित्य सुख का मिलना भी सम्भव नहीं है । इदारायक (३. ४. ४. २२, येसू. ३. ४. ५) में विकल्प से और जाबाल-सन्यास आदि उपनिषदों में प्रधानता से उसी मार्ग का प्रतिपादन किया गया है। तमा अधावागीता (६.८, १०.३-८) पं प्रवधूतगीता (३.४६) में इसीका अनुवाद है। इस पंथ का अन्तिम सिद्धान्त यही है कि, जिस किसी को आत्यन्तिक सुख या मान प्राप्त करना है उसे उचित है कि पद जितनी जल्दी होसको उतनी जल्दी संसार को छोड़ कर संन्यास ले ले। स्मृतिप्रन्यों में जिसका वर्णन किया गया है और प्रीशंक- राचार्य ने कलियुग में जिसकी स्थापना की है. वह श्रीत-हमारी कर्म-संन्यासमार्ग इसी तत्व पर चलाया गया है। सच है। यदि सुख कोई स्वतंत्र वस्तु ही नहीं है, जो कुछ है मो दुःशा ही है, और यह भी सृष्णामूलक है तो इन तृमणा आदि विकारों को ही पहले समूल नष्ट कर देने पर फिर स्वायं और पतार्य की सारी मत आप ही आप दूर हो जायगी, और तब मन की जो मूल-साम्यावरया तथा शान्ति है वही रह जायगी। इसी अभिप्राय से महाभारतान्तर्गत शान्तिपर्व की पिंगलगीता में, और मंकिगीता में भी, कहा गया है कि- यच कामसुखं लोके गच्च दिव्यं महत् सुखम् । तृष्णाक्षयसुखत्यैते नाईतः पोटशी कलाम् || " सांसारिक काम अर्थात् वासना की तृप्ति होने से जो सुख होता है और जो सुख स्वर्ग में मिलता है, उन दोनों सुखों की योग्यता, तृष्णा के क्षय से होनेवाले सुख के सोलहवें हिस्से के बराबर नहीं है" (शां. १७४. ४८; १७७.४६)1 वैदिक संन्यासमार्ग का ही, आगे चल कर, जैन और बौधों में अनुकरण किया गया है। इसी लिये इन दोनों धर्मों के अन्यों में तृष्णा के दुष्परिणामों का और उसकी गी.२ १३
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