गीतारहत्य अथवा कर्मयोगशास्त्र। है न्यान्यता का वर्णन उपयुंजवान ही के समान और कहीं कहीं तो उससे भी बड़ा चढ़ा-लिया गया है (उदाहरणार्थ, धम्मपद के कृष्णा-वर्ग जे देखिये)। तियत के बौद्ध धर्मग्रन्यों में तो यहाँ तक कहा गया है कि महाभारत का उक्त शोक, बुद्धत्व प्राप्त होने पर गौतम बुद्ध के मुख से निकला या! तृष्णा के जो दुप्परिणाम अपर बतलाये गये हैं वे श्रीमन्नगवाता को भी मान्य हैं। परनु गीता का यह सिद्धान्त है कि उन्हें दूर करने के लिये कर्म ही का त्याग नहीं कर बैठना चाहिये । अतएव यहाँ मुखदुःख की उक्त उपपत्ति पर कुछ सूदन विचार करना आवश्यक है। संन्यासना के लोगों का यह कयन सर्वया सत्य नहीं माना जा सकता, कि लय मुख तृष्णा आदि दुःखों के निवारण होने पर ही उत्पन्न होता है। एक बार अनुभव की हुई (देखी हुई: सुनी हुई इत्यादि) वस्तु को जब फिर चाह होती है तब उसे काम, वासना या इच्छा कहते हैं। जब इञ्चित वस्तु जल्दी नहीं मिलती तब दुश्य होता है। और जब वह इन्चा तीन होने लगती है, अया जब इच्छित वस्तु के मिलने पर भी पूरा सुख नहीं मिलता और उसकी शह अधिकाधिक बहने लगती है, तब उसी इन्द्रा को तृष्णा कहते हैं। परंतु इस प्रकार केवल इन्चा के तृणा-स्वरूप में, बदल जाने के पहले ही, यदि वह इच्छा पूर्ण हो जाय, तो उससे होनेवाले नुन्ज के बारे में हम यह नहीं कह सही कि वह नृशानुमन्य के जय होने से सना हुआ है। उदाहरणार्थ, प्रतिदिन नियत समय पर जो भोजन मिलना है, उसके बारे में यह अनुभव नहीं है कि भोजन करने के पहले हमें दुःख ही होता हो । जब नियत समय पर भोजन नहीं मिलता तभी हमारा जी भूक व्याजुल हो जाया करता है-अन्यथा नहीं। अच्चायदि हम मान लें कि तृष्णा और इन्जाएक ही अर्थ के घोतकशब्द है, तो भी यह सिद्धान्त सत्र नहीं माना जा सकता कि सब मुख तृमामूलक ही हैं। उदा- हरण के लिये, एकचोटे बच्चे के मुंह में जानक एक निटी की दली साल दो; तो प्या यह कहा जा सकता कि उस कच्चे को मित्री सान से जो सुख हुआ वह पूर्व तृप्पा के जय से हुआ है? नहीं। इसी तरह मान लो कि राह चलते चलते हम किसी नाय बाग में जा पहुँच, और वहाँ किसी पनी का मधुर गान एकाएक सुन पड़ा, अथवा किसी मन्दिर में भगवान् को मनोहर दवि देव पड़ी; तब ऐसी अवस्या में यह नहीं कहा जा सकता कि इस गान के मुनने से या त दवि के दर्शन से होनेवाले सुख की हम पहले ही से इजा किये बैठे थे। सच बात तो यही है कि सुख की इन्चा किये बिना ही उससमय, हम मुख मिला। इन उदाहरणों पर ध्यान देने से यह अवश्य ही मानना पड़ेगा कि संन्याल मागवाली सुख की दक • Rockhil's Life of Buddha p. 33. यह रोक 'मन' नामक पाली प्रन्य (२२)में है। परन्तु उसने संज्ञा दन्न नहीं हैं कि यह क इद्ध के मुख से, के दुखत ' प्रात होने के समय, निफ्ला या । इन्ने यह मार मालूम हो जाता है कि यह शोक पहले पहट कुट के नुसतेनझें निकला था। 1
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