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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१३८

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सुखदुःखविवेक। व्याख्या ठीक नहीं है और यह भी मानना पड़ेगा कि इन्द्रियों में भली-उरी वस्तुओं का उपभोग करने की स्वाभाविक शक्ति होने के कारण जब वे अपना अपना व्यापार करती रहती है और जब कभी उन्हें अनुकूल या प्रतिकूल विषय की प्राप्ति हो जाती है तब, पहले तृष्णा या इच्छा के न रहने पर भी, हमें सुख-दुःख का अनुभव हुआ करता है । इसी बात पर ध्यान रख कर गीता (२.१४) में कहा गया कि " मानास्पर्श " से शीत, उपण आदि का अनुभव होने पर सुख-दुःख हुआ करता है । सृष्टि के बाए पदार्थों को मात्रा' कहते हैं। गीता के उक्त पदों का अर्थ यह है कि, जब उन वाय पदापों का इन्द्रियों से स्पर्श अर्थात् संयोग होता है तव सुख या दुःख की वेदना उत्पन्न होती है । यही कर्मयोगशास्त्र का भी सिद्धान्त है। कान को कड़ी अयाज़ अप्रिय क्यों मालूम होती है ? जिन्हा को मधुर रस प्रिय क्यों लगता है ? आँखों को पूर्ण चन्द्र का प्रकाश आल्हादकारक फ्यों प्रतीत होता है ? इत्यादि यातों का कारण कोई भी नहीं बतला सकता । हम लोग केवल इतना ही जानते हैं कि जीभ को मधुर रस मिलने से वह सन्तुष्ट हो जाती है । इससे प्रगट होता है कि प्राधिभौतिक सुख का स्वरूप केवल इन्द्रियों के अधीन है और इसलिये कभी कभी इन इन्द्रियों के व्यापारों को जारी रखने में ही सुख मालूम होता है-चाहे इसका परिणाम भविष्य में कुछ भी हो । उदाहरणार्थ, कभी कभी ऐसा होता है कि मन में कुछ विचार आने से उस विचार के सूचक शब्द आप ही आप मुँह से बाहर निकल पड़ते हैं । ये शब्द कुछ इस इरादे से बाहर नहीं निकाले जाते कि इनको कोई जान ले यल्कि कभी कभी तो इन स्वाभाविक व्यापारों से हमारे मन की गुप्त यात भी प्रगट हो जाया करती है, जिससे इमको उल्टा नुकसान हो सकता है । छोटे बचे जव चलना सीखते हैं तब वे दिन भर यहाँ वहाँ यों ही चलते फिरते रहते हैं । इसका कारण यह है कि उन्हें चलते रहने की क्रिया में ही उस समय आनन्द मालूम होता है, इसलिये सव सुखों को दुःखाभावरूप ही न कह कर यही कहा गया है कि " इन्द्रियस्येन्दि यस्यार्थे रागद्वेपो व्यवस्थिती " (गी. ३.३४) अर्थात् इन्द्रियों में और उसके शब्द- स्पर्श आदि विषयों में जो राग (प्रेम) और द्वेष हैं, वे दोनों पहले हीसे 'अन्यास्थित' अर्थात् स्वतन्त्र-सिद्ध है । और अब हमें यही जानना है कि इन्द्रियों के ये प्यापार श्रात्मा के लिये कल्याणदायक कैसे होंगे या कर लिये जा सकेंगे । इसके लिये श्रीकृष्ण भगवान् का यही उपदेश है कि, इन्द्रियों और मन की वृत्तियों का नाश करने का प्रयत्न करने के बदले उनको अपने प्रात्मा के लिये लाभदायक बनाने के मर्थ सपने अधीन रखना चाहिये-जन्हे स्वतन्त्र नहीं होने देना चाहिये । भगवान् के इस उपदेश में, और सुपा तथा उसी के साथ सब मनोवृत्तियों को भी समूल नष्ट करने के लिये कहने में, जमीन-मासमान का अन्तर है । गीता का यह तात्पर्ग नहीं है, कि संसार के सब कर्तृत्व और पराक्रम का बिलकुल नाश कर दिया जाय; बल्कि उसके भतारहवें अध्याय (१८.२६) में तो कहा है कि कार्य-फर्ता में सम-