सुखदुःसविवेक । १०५ सुख दुःखाभावरूप नहीं है, किंतु सुख और दुःख इन्द्रियों की दो स्वतन्त्र वेदना भौर यह कहना उससे मिलकुल ही भिस है, कि मनुष्य किसी एक समय पाये हुप सुख को भूल कर और भी अधिकाधिक सुख पाने के लिये असंतुए बना रहता ६। इनमें से पहली यात सुख के वास्तविक स्वरूप के विषय में है और दूसरी बात या है कि पाये हुए सुख से मनुष्य की पूरी तृप्ति होती है या नहीं ? विषय-वासना हमेशा अधिकाधिक बढ़ती ही जाती है, इसलिये जब प्रतिदिन नये नये सुख नहीं मिल सकते तय यही मानुम होता है कि पूर्वमात सुखों को ही बार यार भोगते रहना चाहिये और इसी से मन की इच्छा का दमन नहीं होता। विटेलियस नामफ एक रोमन यादशाह था। कहते हैं कि पद्ध, निक्षा का सुख इमेशा पाने के लिये, भोजन करने पर किसी भीपधि के द्वारा कै कर डालता था और प्रतिदिन भनेक बार भोजन किया करता था! परन्तु, अन्त में पछतानेवाले ययाति राजा की कपा, इससे भी अधिक शिक्षादायक है। यह राजा, शुक्राचार्य के शाप से, पुदा हो गया था; परन्तु उन्हीं की कृपा से इसको यह सहूलियत भी होगई थी, कि अपना पुढ़ापा किसी को दे कर इसके पलटे में उसकी जवानी ले ले। तब इसने अपने पुर नामक येटे को तरूणावस्या नॉग ली और सी दो सो नहीं पूरे एक हजार वर्ष तक सब प्रकार के विषय-सुखों का उपभोग किया । अन्त में उसे यही अनुभव सुधा, कि इस दुनिया के सारे पदार्थ गफ मनुष्य की भी सुख-वासना को तृप्त करने के लिये पर्याप्त नहीं हैं। तब इसके मुख से यही उदार निकल पड़ा कि:- न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । हविधा कृष्णवमेव भूय एवाभिवर्धते ।। प्रात् “ सुखों के उपभोग से विषय-वासना की तृप्ति तो होती ही नहीं, किन्तु विषय-वासना दिनोंदिन उसी प्रकार बढ़ती जाती है जैसे प्रशि की ज्वाला इयन- पदार्थों से बढ़ती जाती है" (म.भा. आ. ७५.४८) । यही लोक मनुस्मृति में भी पाया जाता है (मनु. २.६४) । तात्पर्य यह है कि सुख के साधन चाहे जितने उपलब्ध हों, तो भी इन्द्रियों की इछा उत्तरोत्तर पढ़ती ही जाती है। इसलिये केवल सुखोपभोग से सुख की इच्छा कभी तृप्त नहीं हो सकती, उसको रोकने या दवाने के लिये कुछ अन्य उपाय अवश्य ही करना पड़ता है। यह तत्व हमारे सभी धर्म-ग्रन्थकारों को पूर्णतया मान्य है और इसीलिये उनका प्रथम उपदेश यह है कि प्रत्येक मनुष्य को अपने कागोपभोग की मर्यादा बाँध लेनी चाहिये । जो लोग कहा करते हैं कि इस संसार में परम साध्य केवल विपयोपभोग ही है, वे यदि उ अनुभूत सिद्धान्त पर थोड़ा भी ध्यान दें, तो उन्हें अपने मन की निस्सारता सुरंत ही मालूम हो जायगी। वैदिक धर्म का यह सिद्धान्त यौवधर्म में भी पाया जाता है और, ययाति राजा के सदश, मान्धाता नामक पौराणिक राजा ने भी मरते समय कहा है:- गी.२, १४
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