पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१४५

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र । न कहापणवस्सेन तित्ति कामेसु विनति । अपि दिन्येसु कामेसु रतिं सो नाधिगच्छति ॥ "काषांपण नामक महामूल्यवान् सिक्के की यदि वर्षा होने लगे तो भी काम- वासना की तित्ति अर्थात् तृप्ति नहीं होती, और स्वर्ग का भी सुख मिलने पर कभी पुरुष की कामेच्छा पूरी नहीं होती"। यह वर्णन धम्मपद (१८६, १८७) नामक चौद्ध अन्य में है। इससे कहा जा सकता है कि विषयोपभोग रूपी सुख की पर्ति कमी हो नहीं सकती और इसी लिये हरएक मनुष्य को हमेशा ऐसा मालूम होता है कि "मैं दुःखी हूँ" मनुष्यों की इस स्थिति को विचारने से वही सिद्धान्त स्थिर करना पड़ता है जो महामारत (शां. २०५, १३३०.१६) में कहा गया है:- सुखाहहुतरं दुःखं जीविते नास्ति संशयः ॥ मर्यात् “ इस जीवन में यानी संसार में सुख की अपेक्षा दुःख ही अधिक है। यही सिद्धान्त साधु तुकाराम ने इस प्रकार कहा है:-" सुख देखो तो राई बराबर ई और दुःख पर्वत के समान है।" पनिपत्कारों का भी सिद्धान्त ऐसा ही है (मैञ्यु. १.२-४) गीता (८.१५ और ६.३३) में भी कहा गया है कि मनुष्य का जन्म प्रशाश्वत और “दुःखों का घर" ई तथा यह संसार अनित्य और " सुखरहित " है । जर्मन पंडित शोपेनहर का ऐसा ही मत है जिसे सिद्ध करने के लिये उस ने एक विचित्र दृष्टान्त दिया है। वह कहता है कि मनुष्य की समस्त सुखेच्छाओं में से जितनी सुखेच्छाएँ सफल होती है उसी परि- माण से इम उसे सुखी समझते हैं। और जब सुखच्छामों की अपेक्षा सुखोपभोग कम हो जाते हैं तब कहा नाता है कि वह मनुष्य उस परिमाण से दुःखी है। इस परिमाण को गणित की रीति से समझना हो तो सुखोपभोग को सुर्खेच्छा सुखोपमोग से भाग देना चाहिये और अपूर्णाङ्क के रूप में -ऐसा लिखना सुखच्छा चाहिये । परन्तु यह अपूर्णाङ्क है भी विलक्षण; क्योंकि इसका हर (मर्यात् सुखेच्छा) अंश (अर्थात् सुखोपमोग) की अपेक्षा, हमेशा अधिकाधिक यढ़ता ही रहता है। यदि यह अपूर्णाङ्क पहले ३ हो, और यदि आगे उसका अंश : से ३ हो जाय, तो उसका हर २ से १० हो जायगा अर्थात् वही अपूर्णाङ्क ३ हो जाता है। तात्पर्य यह है यदि अंश तिगुना बढ़ता है तो हर पंचगुना बढ़ जाता है, जिसका फल यह होता है कि वह अपूर्णाङ्क पूर्णता की ओर न जा कर अधि. काधिक अपूर्णता की ओर ही चला जाता है। इसका मतलब यही है कि कोई मनुष्य कितना ही सुखोपमोग करे, उसकी सुखच्छा दिनोंदिन बढ़ती ही जाती है, निससे यह आशा करना व्यर्थ है कि मनुष्य पूर्ण सुखी हो सकता है। प्राचीन काल में कितना सुख था, इसका विचार करते समय इम लोग इस अपूर्णा के अंश का तो पूर्ण ध्यान रखते हैं, परन्तु इस बात को भूल जाते है कि अंश की