पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशाख । विचार कर लेना चाहिये कि गीता में किस प्रकार की भाशा को दुःखकारी कहा है। मनुष्य कान से सुनता है, त्वचा से स्पर्श करता है,आँखों से देखता है, जिला से स्वाद लेता है तथा नाक से सुचता है। इंद्रियों के ये व्यापार जिस परिमाण से इंद्रियों की स्वाभाविक वृत्तियों के अनुकून या प्रतिकूल होते हैं, उसी परिमाण से मनुष्य को सुख अथवा दुःख हुआ करता है। सुख-दुःख के वस्तुस्वरूप के लक्षण का यह वर्णन पहले हो चुका है। परंतु सुख-दुःखों का विचार केवल इसी व्याख्या से पूरा नहीं हो जाता । आधिभौतिक सुख-दुःखों के उत्पन्न होने के लिये वाम पदार्थों का संयोग इंद्रियों के साथ होना यद्यपि प्रथमतः आवश्यक ई,तथापिइसका विचार करने पर, कि मागे इन सुख-दुःखों का अनुभव मनुष्य को किस रीति से होता है, यह मालूम होगा कि इंद्रियों के स्वाभाविक व्यापार से उत्पन्न होनेवाले इन मुख-दुःखों को जानने का (अर्थात् इन्हें अपने लिये स्वीकार या अस्वीकार करने का) काम हरएक मनुष्य अपने मन के अनुसार ही किया करता है। महामारत में कहा है कि " चतुः पश्यति रूपाणि मनसा न तु चतुपा" (ममा. शां.३११.१७) प्रर्यात् देखने का काम केवल घाखों से ही नहीं होता, किंतु उसमें मन की भी सहायता अवश्य होती है, और यदि मन व्याकुल रहता है तो आँखों से देखने पर भी अनदेखा सा हो जाता है । वृहदारण्यकोपनिषद (१.५.३) में भी यह वर्णन पाया जाता है, यया (अन्यत्रमना अभूवं नादर्शम् ) " मेरा मन दूसरी और लगा था, इसलिये मुझे नहीं देख पड़ा, और (अन्यत्रमना अभूवं नानापम् ) मेरा मन दूसरी ही मोर था इसलिये मैं सुन नहीं सका" इससे यह स्पष्टतया सिद हो जाता है कि आधिभौतिक सुख-दुःखों का अनुमव होने के लिये इंद्रियों के साथ मन की भी सहायता होनी चाहिये और आध्यात्मिक सुख-दुःख तोमानसिक होते ही हैं। सारांश यह है, कि सब प्रकार के सुख-दुःखों का अनुभव अंत में हमारे मन पर ही अवलम्वित रहता है और यदि यह बात सच है, तो यह भी आप ही आप सिद्ध हो जाता है कि मनोनिग्रह से सुख-दुःखों के अनुमव का भी निग्रह अर्थात् दमन करना कुछ असम्भव नहीं है । इसी बात पर ध्यान रखते हुए मनुजी ने सुख-दुःखों का लक्षण नैय्यायिकों के लक्षण से मिन्न प्रकार का बसलापा है। उनका कथन है कि:- सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षण तुखदुःखयोः ।। भयांत् "जो दूसरों की (वाह्य वस्तुमा की) अधीनता में है वह सब दुःख है, और जो अपने (मन के अधिकार में है वह सुख है।यही सुख-दुःख का संक्षिप्त लक्षण है" (मनु. १.६०)। नैय्यायिकों के बतलाये हुए लक्षण के 'वेदना' शब्द में शारीरिक और मानसिक दोनों वेदनाओं का समावेश होता है और उसले सुख-दुःख का वाझ वस्तुस्वल्प भी मालूम हो जाता है। और मनु का विशेष ध्यान सुख-दुःखों के केवल प्रान्तरिक अनुभव पर है। बस, इस बात को ध्यान में रखने से