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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५०

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सुखदुःखविवेक। सुख-दुःख के उक्त दोनों लक्षणों में कुछ विरोध नहीं पड़ेगा । इस प्रकार जय सुख-दुःखों के अनुभव के लिये इंद्रियों का प्रयतम्य अनावश्यक हो गया, तप तो यही कहना चाहिये कि:- भैषज्यमेतद् दुःखस्य यदेतन्नानुचिंतयेत् । मन से दुःखों का चिंतन न करना ही दुःखनिवारण की अचूक प्रीपधि है" (म.भा. शा २०५.२) और इसी तरह मन को दबा कर सत्य तथा धर्म के लिये सुखपूर्वक अप्ति में जल कर मस हो जानेवालों के अनेक उदाहरण इतिहास में भी मिलते हैं। इसीलिये गीता का कथन है, कि हमें जो कुछ करना है इसे मनोनि. ग्रह के साथ और उसकी फलाशा को छोड़ कर तथा सुख-दुःख में समभाव रख कर फरना चाहिये ऐसा करने से न तो हम कर्माचरण का त्याग करना पड़ेगा और न हमें उसके दुःख की बाधा ही होगी । फलाशा-स्याग का यह अर्थ नहीं है, कि हमें जो फल मिले उसे छोड़ दें, अथवा ऐसी इच्छा रखें कि यह फल किसी को कभी न मिले। इसी तरह फलाशा में और कर्म करने की केवल इच्छा,माशा,हेतु या फल के लिये किसी बात की योजना करने में भी यहुत अंतर है। केवल हाथ पैर हिलाने की इच्छा होने में, और अमुक मनुष्य को पकड़ने के लिये या किसी मनुष्य को लात मारने के लिये हाथ पैर हिलाने की इच्छा में घदुत भेद है। पहली इच्छा केवल कर्म करने की ही है, उसमें कोई दूसरा हेतु नहीं है और यदि यह इच्छा छोड़ दी जाय तो कमी का करना ही रुक जायगा । इस इच्छा के अतिरिक्त प्रत्येक मनुष्य को इस बात का ज्ञान भी होना चाहिये कि हरएक कर्म का कुछ न कुछ फल अथवा परिणाम अवश्य ही होगा। बल्कि ऐसे ज्ञान के साथ साथ उसे इस बात की इच्छा भी अवश्य होनी चाहिये कि मैं अमुक फल-प्राप्ति के लिये अमुक प्रकार की योजनां करके ही अमुक कर्म करना चाहता है नहीं तो उसके सभी कार्य पागलों के से निरर्थक हुआ करेंगे। ये सब इच्छाएँ, हेतु या योजनाएँ, परिणाम में दुःखकारक नहीं होती और, गीता का यह कथन भी नहीं है, कि कोई धनको छोड़ दे । परंतु स्मरण रहे कि इस स्थिति से यहुत भागे पढ़ कर जव मनुष्य के मन में यह भाव होता है कि "मैं जो कम करता हूँ, मेरे उस कर्म का भमुक फल मुझे अवश्य ही मिलना चाहिये "-अर्थात् जय कर्म-फल के विषय में, कर्ता की पुद्धि में ममत्व की . यह आसक्ति, अभिमान, अभिनिवेश, आग्रह या इच्छा उत्पन्न हो जाती है और मन उसी से ग्रस्त हो जाता है-और जब इच्छानुसार फल मिलने में बाधा होने लगती है, तभी दुःख-परम्परा का प्रारम्भ हुआ करता है। यदि यह थाधा अनिवार्य अथवा देवकृत हो तो केवल निराशामात्र होती है। परंतु वही कहीं मनुष्यकृत हुई तो फिर क्रोध और द्वेष भी उत्पन्न हो जाते हैं जिससे कुकर्म होने पर मर मिटना पड़ता है। कर्म के परिणाम के विषय में जो यह ममत्वयुक्त भासक्ति होती है उसी को फलाशा, '• संग,"काम' और 'अहंकारसुद्धि' कहते हैं और यह यतलाने के लिये, कि संसार की दुःद-परम्परा यहीं से शुरू होती है, गीता के