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पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५४

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सुखदुःखविवेक। इसलिये भगवान ने अंत में अपना निश्चित मत भी बतला दिया है, कि "कर्मन करने का (अकर्मगि)तू हठ मत कर." तेरा जो अधिकार है उसके अनुसार- परंतु फलाशा छोड़ कर फर्म करता जा । कर्मयोग की दृष्टि से ये सब सिद्वान्त इतने महत्वपूर्ण है कि उक श्लोक के चारों चरणों को यदि हम कर्मयोगशास्त्र या गीता- धर्म के चतुःसून भी कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। यह मालूम हो गया कि इस संसार में सुख-दुःख हमेशा क्रम से मिला करते हैं और यहीं सुख की अपेक्षा दुःख की ही मात्रा अधिक है। ऐसी अवस्था में भी जय यह सिद्धान्त बतलाया जाता है कि सांसारिक कर्मों को छोड़ नहीं देना चाहिये तम कुछ लोगों की यह समझ हो सकती है कि दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति करने और अत्यन्त सुख प्राप्त करने के सब सानवी प्रयत्न व्यर्थ हैं । और, केवल प्राधिभौतिक अर्थात इंद्रियगम्य बाह्य विषयोपभोगल्पी सुखों को ही देखें, तो यह नहीं कहा जा सकता कि उनकी यह समझ ठीक नहीं है । सच है यदि कोई यालक पूर्ण चंद्र को पकड़ने के लिये हाथ फैला दे तो जैसे आकाश का चंद्रमा उस के हाथ में कमी नहीं पाता, उसी तरह प्रात्यन्तिक सुख की आशा रख कर फेयल प्राधिभौतिक सुख के पीछे लगे रहने से प्रात्यन्तिक सुख की प्राप्ति कभी नहीं होगी। परन्तु स्मरण रहे कि प्राधिभौतिक सुख ही समस्त प्रकार के सुखों का भारासार नहीं है, इसलिये उपर्युक्त कटिनाई में भी प्रात्यन्तिक और नित्य सुख- प्राप्ति का मार्ग हुँदै लिया जा सकता है । यह ऊपर बतलाया जा चुका है कि सुखों के दो भेद हैं-एक शारीरिक और दूसरा मानसिक । शरीर अथवा इंद्रियों के व्यापारी की अपेक्षा मन को ही अंत में अधिक महत्व देना पड़ता है। ज्ञानी पुरुष जो यह सिद्धान्त बतलाते हैं कि शारीरिक (अर्थात प्राधिभौतिक ) सुख की अपेक्षा मान- सिक सुख की योग्यता अधिक है उसे वे कुछ अपने ज्ञान के घमंड से नहीं पतनाते । प्रसिद्ध साधिभौतिक-वादी मिल ने भी अपने उपयुक्तता-बाद-विषयक ग्रंथ में साफ़ साफ़ मन्जूर किया है कि उक्त सिद्धान्त में ही श्रेष्ट मनुष्य-जन्म की सधी सार्थ- कता और महत्ता है। कुत्ते, शूकर और धैल इत्यादि को भी इंद्रियसुख का आनंद मनुष्यों के समान ही होता भार मनुष्य की यदि यह समझ होती कि संसार म सध्या सुख विपयोपभोग ही है, तो फिर मनुष्य पशु बनने पर भी राजी हो गया होता। परंतु पशुओं के सम विषय-सुखों के नित्य मिलने का अवसर प्राने पर भी कोई मनुष्य पशु होने को राजी नहीं होता; इससे यही विदित होता है कि मनुष्य और पशु में कुछ न कुछ विशेषता अवश्य है। इस विशेषता को समझने

    • It is bottor to bo a human being dissatisfied than a pig

satisfied; better to be Sooratos dissatisfied than a fool satisfiod. And if the fool, or the pig, is of a difforont opinion, it is be- cause they only know thoir own sido of the question." Otilitarianism, p. 14 ( Longmans 1907 ).