पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५३

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गीतारहत्व अथवा कर्मयोगशाख । तो रो देता है और मन से विषयों का चिंतन करता रहता है, वह पूरा टॉगी है। और तो मनुष्य मनोनिग्रहपूर्वक काग्य बुद्धि को जीत कर, सब मनोवृत्तियों को लोकसंग्रह के लिये उपना अपना काम करने देता है, वही श्रेष्ठ है। बान जगन या इन्द्रियों के व्यापार हमारे उत्पन्न यि हुम नहीं हैं, वे समावसिद्ध है। हम देखते हैं कि बद कोई संन्यासी बहुत भूखा होता है तब उसकी चाहे वह कितना ही निग्रही हो-मील माँगने के लिये कहीं बाहर जाना ही पड़ता है (गी.३.३३); और, यद्भुत देर तक एक ही जगह के रहने से ऊब कर वह तक खड़ा हो जाता है। तात्पर्य यह है कि निग्रह चाहे जितना हो, परन्तु इन्द्रियों के लो स्वभाव-सिद्ध व्यापार हैं देकनी नहीं चूरतेऔर यदि ग्रह यात सच है तो इन्द्रियों की वृचि तया सब कर्मों को और सब प्रकार की इच्छा या असन्तोप को नष्ट करने के दुराग्रह में न पड़ना (गी. २.४७, ८.५६), एवं मनोनिग्रह- पूर्वक फलाशा छोड़ कर सुख-दुःख को एक-बराबर समझना (गी. २.३८), तथा निजाम युद्धि से लोकहित के लिये सब कमों को शास्त्रोक रीति से करते रहना ही, श्रेष्ट तथा प्रादर्श मार्ग है। इसी लिये- कमप्येवाधिकारस्ते मा प्लेषु कदाचन । मा कमजल्हेनुर्भूः मा ते संगोऽत्वक्रमणि ॥ इस श्लोक में (गी. २.४७) श्रीमगवान् अर्जुन को पहले यह बतलाते हैं, कि तू इस सममि में पैदा हुनाई इसलिये “ नुम कर्म करने का हा अधिकार है। परन्तु इस बात को भी ध्यान में रख कि तेरा यह अधिकार केवल (कन्य-) कर्म करने का भी है। एव' पद का अर्थ है 'वल, जिससे यह सहन ही विदित होता है कि मनुष्य का अधिकार कम के सिवा अन्य बातों में अर्थात् कर्मफल के विषय में नहीं है। यह महत्वपूर्ण बात फेवल अनुमान पर ही अवलंबित नहीं रखती है। फ्याँकि दूसरे चरण में भगवान् ने स्पष्ट शब्दों ने कह दिया है कि "तेरा अधि- कार कर्म-फल के विषय में कुछ भी नहीं है "-अर्यात किती कर्म का फल मिलना न मिलना तेरे अधिकार की बात नहीं है, वह सृष्टि के मविपाक पर या ईश्वर पर अवलयित है । तो फिर जिस बात में हमारा अधिनार ही नहीं है उसके विपय में श्राशा करना, कि वह अमुक प्रकार हो, कवन मूर्खता का लक्षण है । परन्तु यह तीसरी यात भी अनुमान पर अवलंबित नहीं है । तीसरे चरण में कहा गया है कि " इसलिये कर्म-फल की आशा रख कर किसी भी काम को मत कर" क्यॉझिमंत्रिपाक के अनुसार तेरे कर्मों का जो फल होना होगा वह अवश्य होगा ही, तेरी इच्छा से इसमें कुछ न्यूनाधिकता नहीं हो सकती और न उसके देरी से या बल्दी से हो जाने ही की संभावना है, परन्तु यदि न ऐली अाशा रखेगा या आग्रह करेगा तो मुझे केवल व्ययं दुःख ही मिलेगा। अब यहाँ कोई कोई -विशेषतः संन्यासमार्गी पुरुष-प्रन्न करेंगे, कि कर्म करके फनाशा छोड़ने के काड़े में पड़ने की अपेक्षा कर्माचरण को ही छोड़ देना क्या अच्छा नहीं होगा ? 15 .