पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५६

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सुखदुःखविवेका इंद्रियों को माग सुखकारक प्रतीत होती है, वही किसी कारण से दूसरे दिन दुःखमय हो जाती है । उदाहरणार्थ, ग्रीष्म ऋतु में जो ठंडा पानी हमें अच्छा लगता है, वही शीतकाल में अप्रिय हो जाता है । अस्तु इतना करने पर भी, उससे सुखेच्छा की पूर्ण तृप्ति होने ही नहीं पाती । इसलिये, सुख शब्द का व्यापक अर्थ ले कर यदि हम उस शब्द का उपयोग सभी प्रकार के सुखों के लिये करें तो हमें सुख-सुख में भी भेद करना पड़ेगा। नित्य व्यवहार में सुख का अर्थ मुख्यतः इंद्रिय- सुख ही होता है। परंतु जो सुख इंद्रियातीत है, अर्थात् जो केवल खात्मनिष्ठ पुद्धि को ही प्राप्त हो सकता है उसमें और विषयोपभोग-रूपी सुख में जव भिन्नता प्रगट करना हो, तब आत्मबुद्धि-प्रसाद से उत्पन्न होनेवाले सुख को, अर्थात् प्राध्या- त्मिक सुख को श्रेय, कल्याण, हित, आनंद अथवा शांति कहते हैं। और विष- योपभोग से होनेवाले आधिभौतिक सुख को केवल सुख या प्रेय कहते हैं। पिछले प्रकरण के अंत में दिये हुए कठोपनिषद के वाक्य में, प्रेय और श्रेय में, नचिकेता ने जो भेद बतलाया है उसका भी मभिप्राय यही है । मृत्यु ने उसे अमि का रहस्य पहले ही पतला दिया था; परंतु इस सुख के मिलने पर भी जब उसने आत्मज्ञान- प्राप्ति का वर माँगा, तब मृत्यु ने उसके बदले में उसे अनेक सांसारिक सुखों का लालच दिखलाया। परन्तु नचिकेता इन भनित्य आधिभौतिक सुखों को कल्याण- कारक नहीं लसझता था, क्योंकि ये (प्रेय ) सुख बाहरी दृष्टि से अच्छे हैं, पर प्रात्मा के श्रेय के लिये नहीं है। इसी लिये उसने न सुखों की ओर ध्यान नहीं दिया, किंतु उस यात्मविद्या की प्राप्ति के लिये ही हठ किया जिसका परिणाम प्रात्मा के लिये श्रेयस्कर या कल्यागाकारक है, और उसे अंत में पा कर ही छोड़ा।सारांश यह है, कि श्रात्मयुद्धि-प्रसादसे होनेवाले केवल शुद्धिगम्य सख को अर्थात् आध्यात्मिक सुख को ही हमारे शास्त्रकार श्रेष्ठ सुख मानते हैं और उनका कथन है, कि यह नित्य सुख आत्मवश है, इसलिये सभी को प्राप्त हो सकता है तथा सब लोगों को चाहिये कि वे इसकी प्राप्ति के लिये प्रयत्न करें। पशु-धर्म ले होनेवाले सुख में और मानवी सुख में जो कुछ विशेषता या विलक्षणता है वह यही है। और यह मात्मानन्द केवल बास उपाधियों पर कभी निर्भर न होने के कारण सब सुखों में नित्य, स्वतंत्र और श्रेष्ठ है। इसी को गीता में निर्वाण, अर्थात् परम शान्ति कहा है (गी.६.१५)और यही नियतप्रज्ञों की ब्राह्मी अवस्था की परमावधि का सुख है(गी.२. ७१,६.२८,१२.१२१८.६२ देखो)। अब इस बात का निर्णय हो चुका, कि आत्मा की शान्ति या सुख ही अत्यन्त श्रेष्ठ है और वह आत्मवश होने के कारण सब लोगों को प्राप्य भी है। परन्तु यह प्रगट है, कि यपि सब धातुओं में सोना अधिक मूल्यवान् है, तथापि केवल सोने से ही, लोहा इत्यादि अन्य धातुओं के बिना, जैसे संसार का काम नहीं चल सकता अथवा जैसे केवल शफार से ही, बिना नमक के काम नहीं चल सकता; उसी तरह आत्मसुन या शान्ति को भी समझना चाहिये । इसमें सन्देह नहीं कि