पृष्ठ:गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र.djvu/१५७

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गीतारहस्य अथवा कर्मयोगशास्त्र तब इंस शान्ति के साथ, शरीर-धारणा के लिये ही सही, कुछ सांसारिक वस्तुओं की श्रावश्यकता है और इसी अभिप्राय से आशीर्वाद के संकल्प में केयन "शान्तिरस्तु" न कह कर "शान्तिः पुष्टिस्तुष्टिश्वास्तु"-शान्ति के साथ पुष्टि औरतुष्टि भी चाहिये, कहने की रीति है। यदि शासकारों की यह समझ होती, कि केवल शान्ति से ही तुष्टि हो जा सकती है, तो इस संकल्प में 'पुष्टि ' शब्द को व्यर्थ घुसेड़ देने की कोई अावश्यकता नहीं थी । इसका यह मतलब नहीं है, कि पुष्टि अर्थात् ऐहिक सुखों की वृद्धि के लिये रात दिन हाय हाय करते रहो । उक संकल्प का मावार्थ यही है कि तुम्हें शान्ति, पुष्टि और तुष्टि (सन्तोप) तीनों तचित्त परिमाण से मिले और इनकी प्राप्ति के लिये तुम्हें यत्न भी करना चाहिये । कठोपनिपद का यही तात्पर्य है । नचिकेता जब मृत्यु के अयान यम के लोक में यम ने उससे कहा कि तुम कोई भी तीन वर माँग लो। उस समय नचिकेता ने एकदम यह वर नहीं माँगा, कि मुझे ब्रह्मज्ञान का उपदेश करो; किन्तु उसने कहा कि " मेरे पिता मुझपर अप्रसन्न हैं, इसलिये प्रथम चर आप मुझे यही दीजिये कि वे मुझ पर प्रसन्न हो जावें ।" अनन्तर उसने दूसरा वर माँगा कि शनि के, मर्यात ऐहिक समृद्धि प्राप्त करा देनवाले यज्ञ यादि कर्मो के, ज्ञान का उपदेश करो।" इन दोनों वरों को प्राप्त करके अन्त में उसने तीसरा वर यह माँगा कि "मुझे आत्मविद्या का उपदेश करो।" परन्तु जब यमराज कहने लगे कि इस तीसरे पर के बदले में तुझे और भी अधिक सम्पत्ति देता है, तय-दार्थात प्रेय (सुख) की प्राप्ति के लिये आवश्यक यज्ञ आदि कमी का ज्ञान प्रास हो जाने पर टली की अधिक आशा न करके-नचिकेता ने इस बात का आग्रह किया, कि "अय मुझे श्रेय (आत्यन्तिक सुख) की प्राप्ति करा देनेवाले महाज्ञान का ही उपदेश करो।" सारांश यह है कि इस उपनिपद के अन्तिम मंत्र में जो वर्णन है इसके अनुसार ब्रह्मविद्या' और ' योगविधि' (मथात् यज्ञ-याग सादि कर्म) दोनों को प्राप्त करके नचिकेता मुक हो गया है (क. ६.८)। इससे ज्ञान और कर्म का समुचय ही इस उपनिषद का तात्पर्य मालूम होता है। इसी विषय पर इन्द्र की भी एक कया है। कौपीतकी उपनिपद में कहा गया है, कि इंद्र तो स्वयं ब्रह्म. ज्ञानी था ही, परन्तु उसने प्रतर्दन को भी ब्रह्मज्ञान का उपदेश किया था। तथापि, जब इन्द्र का राज्य दिन गया और प्रहाद को त्रैलोक्य का आधिपत्य मिला तब उस ने देवगुरु वृहस्पति से पूछा कि "मुझे वतनाइये कि श्रेय किस में है ?" तव वृहस्पति ने राज्यत्रष्ट इंद्र को ब्रह्मविद्या मर्याद आत्मज्ञान का उपदेश करके कहा कि “ श्रेय इसी में है"-तावच्छेय इति-परंतु इससे इंद्र का समाधान नहीं हुआ। उसने फिर प्रश्न किया " क्या और भी कुछ अधिक है?"-को विशेषो भवेत् ? तव वृहस्पति ने उसे शुक्राचार्य के पास भेजा । वहाँ भी वही हाल हुआ और शुक्राचार्य ने कहा कि " प्रहाद की यह विशेषता मालूम है।" तब अंत में इंद्र याह्मण का रूप धारण करके प्रहाद का शिष्य वन कर सेवा